‘सिंध बिना हिंदुस्तान अधूरा’… 1947 के बंटवारे में बनारस आए सिंधी, कह दी अ… – भारत संपर्क

लीलाराम सचदेवा को 75 बरस हो गए हैं, लेकिन बाप-दादाओं से उन्होंने जो कुछ सुना है, वो आज भी उनको मुंहजबानी याद है. लीलाराम जी ने टीवी9 डिजिटल से विभाजन पर तफसील से बात की. लीलाराम जी ने बताया कि पंजाब और बंगाल के उलट सिंध से सिंधी लोगों का पलायन सन 1947 की बजाय सन 1948 में ज्यादा हुआ. 21 जनवरी 1948 को हुए कराची में भीषण रक्तपात की वजह से सिंधियों का पलायन तेजी से हुआ. अपना सबकुछ छोड़कर देश के अलग-अलग हिस्सों में सिंधी समाज के लोग पहुंचना शुरू किए. मेरे पिताजी तब नौकरी के सिलसिले में बाहर गए थे, तभी कराची में रक्तपात हुआ था. मेरी मां बुआ और फूफा के साथ वहां से सबकुछ छोड़कर यहां आईं, जिसको जहां कुछ अपने परिवार के लिए दिखा, वो वहीं लंगर डाल दिया.
500 से ज्यादा सिंधी परिवार सातबेला आश्रम के महंत बाबा हरनाम दास के साथ वाराणसी आया. उसमें से एक हमारा भी परिवार था. मेरे पिताजी ओडी सचदेवा ने हम सभी भाई-बहनों को बताया था कि बहुत मुश्किल भरे हालात थे. ज्यादातर सिंधी परिवार शरणार्थी कैंप में रहते थे. लहरतारा, पिशाच मोचन और गोदौलिया में एक-एक कमरे में चार-चार परिवार रहते थे. पिताजी ने बीएचयू से डिग्री ली और नौकरी के लिए असम, बिहार और बंगाल में रहे.
अब तो नाना-दादा बन गए
बड़े भाई को छोड़कर हम सब भाई-बहन का जन्म यहीं हुआ. प्राइमरी, मिडल स्कूल के बाद बीएचयू से डिग्री ली और नौकरी किए. मैं नगर निगम में बीजेपी के सभासद दल का नेता तक बना. हम सभी भाई-बहन वेल सेटल थे. सबकी शादी अच्छे परिवार में हुई. अब तो दादा-नाना बन गए हैं, लेकिन सिंध अभी भी जेहन में बसा हुआ है. जब तक सिंध हिंदुस्तान का हिस्सा नहीं बनता, तब तक हिंदुस्तान अधूरा है.
भगवान दास ब्रह्म खत्री 73 साल के हैं. दशास्वमेध पर फेमस मुस्कान सूट के मालिक हैं, लेकिन यहां तक पहुंचना बिल्कुल भी आसान नही था. विशेष रूप से एक शरणार्थी परिवार के सदस्य के लिए, लेकिन वो यहां तक पहुंचे. भगवान दास जी बताते हैं कि उनके दादा रुपचंद खत्री और पिता ताराचंद खत्री पाकिस्तान के टंडे मोहम्मद खां से आए थे. वहां हमारा परिवार खेती-बाड़ी करने वाला सम्पन्न परिवार था, लेकिन यहां बिल्कुल फटेहाल स्थिति में आए.
दादा जी और पिताजी ने बहुत मेहनत की
पहले वो राजस्थान के ब्यावर गए. फिर वहां से बनारस आए. बनारस में वो सबसे पहले विश्वनाथ गली में पहुंचे और रेहणी-ठेला और फिर कपड़ों की फेरी लगाने लगे. दादा जी और पिताजी ने बहुत मेहनत की. हम छह बहन और दो भाई यहीं पैदा हुए. हम सभी अपने बिजनेस को ग्रो करने में लगे रहे. आज हम सभी भाई-बहन दादा-नाना और दादी-नानी बनकर खुशहाल जीवन जी रहे हैं तो इसके पीछे हमारे बाप-दादा की नियत और उनकी मेहनत है.
सतीश छाबड़ा चंदासी कोयला मंडी में एक जाना-पहचाना नाम है, लेकिन इनकी भी जड़ें पाकिस्तान के सिंध से जुड़ी हैं. सतीश छाबड़ा बताते हैं कि उनके दादा लाडूक मल सिंध के पवारी के जमींदार थे. घोड़ी से चलते थे, लेकिन जनवरी 1948 में जो रक्तपात हुआ, उससे दुःखी होकर ससबकुछ छोड़कर उनको यहां आना पड़ा. कुछ लोग मुंबई चले गए, जबकि दादाजी अपने परिवार के साथ बनारस आ गए. पिताजी तब गोद में थे. यहां दादाजी ने रेहणी पर दुकानें लगाई, ठेला चलाया फिर बहुत बाद में ईंट का भट्टा लगाया. मेरे दादा और पिता ने बहुत संघर्ष किया था. आज हम सफल कोयला व्यवसायी हैं, लेकिन आज भी ये सोंच कर छाती फटी जाती है कि सबकुछ छोड़कर हमें सिर्फ इसलिए यहां आना पड़ा क्योंकि हम सिंधी थे.
सबकुछ भूलकर केवल संघर्ष किया
आशानंद बादलानी 72 साल के एक सफल फल व्यवसायी हैं. बड़ा बेटा कंस्ट्रक्शन के बिजनेस में है, जबकि छोटा बेटे की नेल पॉलिश की फैक्टरी है. आशानंद जी बताते हैं कि उनके पिता चेतनदास बादलानी सन 1947 में कराची से जोधपुर आए. वहां से दिल्ली और फिर सन 1955 में बनारस आए. तब सिंधी समाज के लोग संघर्ष और मेहनत से परिवार को संवारने में लगे थे. सबकुछ भूलकर कि उन्होंने क्या खोया है.
मेरे पिताजी भी बनारस फल मंडी में काम शुरू किए और बिजनेस जमाने के लिए अथक प्रयास किया. बीएचयू से हम सभी भाई-बहन पढ़े-लिखे और इस काबिल बने कि समाज में हमने प्रतिष्ठा हासिल की. आज जब विभाजन विभीषिका पर चर्चा होती है तो मन थोड़ा अशांत हो जाता है. अपने बाप-दादा के संघर्ष और उनकी मेहनत को हम सभी सिंधी समाज के लोग दिल के अंतः करण से याद करते हैं और उनके प्रति कृतज्ञता और समर्पण का भाव रखते हैं.