श्रीलंका-बांग्लादेश से लेकर नेपाल तक… छोटे देशों में आखिर क्यों सरकारें खो देती हैं… – भारत संपर्क


नेपाल प्रदर्शन पर शंभूनाथ शुक्ल के विचार
नेपाल में ओली सरकार जन आक्रोश पर काबू नहीं कर पाई, या यूं कहें कि वह जनता के मिजाज को समझ नहीं पाई. जनता के अंदर यह असंतोष कोई एक दिन का नहीं है, बल्कि वर्षों से खदबदा रहा था, बस चिंगारी फूटने की देर थी. जिसकी नतीजा यह हुआ कि आठ सितंबर को जनता ने हिंसक प्रदर्शन किया. पुलिस घेरा तोड़ कर लोग संसद परिसर में घुस गये. पुलिस की गोलीबारी और हिंसा से बहुत लोग मारे गये. गुस्साये लोगों ने संसद भवन को फूंक डाला और एक पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी को भी मार दिया गया.
मौजूदा प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली जान बचा कर भाग निकले. साथ में अपने कुछ मंत्रियों को हेलीकाप्टर में बिठा कर काठमांडू से चले गये. वे कहां गये किसी को पता नहीं. भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकार के खिलाफ लोगों में गुस्सा था. ऐसे समय में आग में घी उस समय पड़ गया जब सरकार ने सोशल मीडिया पर रोक लगा दी.
पूर्व प्रधानमंत्रियों की पिटाई
लोगों में गुस्सा इतना अधिक था कि सरकार के कई मंत्रियों को दौड़ा-दौड़ा कर मारा गया. पूर्व प्रधानमंत्री झालानाथ खनाल के घर में आग लगा दी गई. इसमें उनकी पत्नी राजलक्ष्मी चित्रकार बुरी तरह जल गईं. उन्हें अस्पताल ले जाया गया, जहां उनकी मृत्यु हो गई. एक और प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा को पब्लिक ने घर में घुस कर पीटा. उनकी पत्नी भी मारपीट से घायल हो गई हैं. वित्त मंत्री विष्णु पौडेल को तो घर से बाहर निकाल कर दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया. केपी शर्मा ओली के घर को आग के हवाले कर दिया गया और राष्ट्रपति के आवास को भी आग लगा दी गई. संसद भवन में आग पर काबू नहीं पाया जा सका और वहां लूटपाट भी खूब हुई. सिंह दरबार में भी आग लगाई गई. नेपाल पूरी तरह विद्रोहियों के कब्जे में है. सेना और पुलिस लाचार है. प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने इस्तीफा दे दिया है.
गोरखा और मधेशियों में विवाद
नेपाल को केपी शर्मा ओली संभाल नहीं पा रहे थे. प्रदर्शन की कई वजहें थीं, जिसमें प्रमुख वजह है नेपाल में भ्रष्टाचार बहुत बढ़ा है. बार-बार सरकारें बदलीं और पांच वर्ष के भीतर तीन प्रधानमंत्री आए. शेर बहादुर देउबा, पुष्पकमल दहल प्रचंड और केपी शर्मा ओली. देउबा को छोड़ कर बाकी दोनों कम्युनिस्ट हैं. चीन से ये लोग नजदीकी बढ़ा रहे थे, इसलिए भारत से दूरी स्वाभाविक हो गई. लिपुलेख विवाद पर ओली बहुत भड़के और भारत को नाराज कर दिया, जबकि नेपालियों को सबसे अधिक भारत में ही शरण मिलती है. यहां वे हर तरह की नौकरियों में हैं. भारत से विवाद बढ़ाने का अर्थ था, रोटी-बेटी के संबंधों को खत्म करना. इसके अलावा तराई के इलाके में रह रहे मधेशी लोगों के साथ नेपाल की सरकारें सौतेला व्यवहार करती रही हैं. जबकि इनकी आबादी भी ज्यादा है और यह कृषि प्रधान समुदाय है.
सारे ठेके बेटे-बेटियों को
इस आंदोलन का नेतृत्त्व जिन बालेंद्र शाह उर्फ बालन के पास है, वे काठमांडू के मेयर हैं और युवा हैं. मूल रूप से वे भी मधेशी समुदाय से हैं. माना जा रहा है कि फिलहाल नेपाल की कमान अंतरिम से शायद वही संभालेंगे. भारत और चीन के बीच बफर स्टेट के रूप में उपस्थित नेपाल अमेरिका के लिए भी लाभकारी है. यह स्थिति अब भारत और चीन दोनों को परेशान करने वाली है. ओली सरकार का झुकाव चीन की तरफ बहुत अधिक हो चला था. प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली चीन के बलबूते भारत और अमेरिका दोनों को आंख दिखाने लगे थे. ऊपर से नेपाल सरकार का हर मंत्री खूब धन उपार्जन कर रहा था. भाई-भतीजावाद इतना अधिक था कि हर क्रीमी पद पर इन मंत्रियों के बेटे-बेटी काबिज थे. परियोजनाओं के ठेके भी उन्हीं को मिलते थे.
चार साल में चार देशों में तख्ता पलट
सत्तासीन लोगों के भ्रष्टाचार के चलते पिछले चार वर्षों में भारत के करीबी चार देशों की जनता ने सरकारों का तख्ता पलट किया. 2021 में अफगानिस्तान, 2022 में श्रीलंका, अगस्त 2024 में बांग्लादेश, और अब नेपाल में भी हो गया. ये चारों देश छोटे हैं और यहां बेरोजगारी व भ्रष्टाचार बहुत अधिक है. जनता सरकारों से आजिज आ चुकी थीं. इन चारों देशों में चीन और अमेरिका दोनों दखल दे रहे थे. चीन के बारे में कहा जाता है कि वह जिस देश पर कृपा दृष्टि दिखाता है, वहां की सरकार अस्थिर होने लगती है. यह अलग बात है कि दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले चीन की शी जिनपिंग की सरकार फिलहाल तो स्थिर है. अभी तीन सितंबर को अपनी सैन्य परेड कई राष्ट्राध्यक्षों को दिखा कर शी जिनपिंग ने जाहिर किया है कि उसके हथियार और उसकी सेना बहुत प्रबल है.
कज्जाफी के खिलाफ फेसबुक का इस्तेमाल हुआ था
नेपाल की तरह जन आक्रोश 2011 में लीबिया में देखने को मिला था. वहां 1969 से सत्ता पर काबिज कर्नल कज्जाफी की सरकार का युवाओं ने तख्ता पलट कर दिया था. 21वीं सदी का वह पहला हिंसक आंदोलन था, जिसमें फेसबुक का सहारा लिया गया था. उत्तरी अफ्रीका के इस रेगिस्तानी देश में कर्नल कज्जाफी ने 42 वर्ष तक शासन किया था. उनकी दमनकारी नीतियों, भ्रष्ट आचरण और भाई-भतीजावाद से देशवासी परेशान थे. इसलिए फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से युवाओं का आह्वान किया गया. वहां के शहर बेनगाजी में एक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता की गिरफ्तारी से जनता में रोष फैल गया और लोग कर्नल कज्जाफी के विरोध में सड़कों पर उतार आए. जल्दी ही यह आंदोलन राजधानी त्रिपोली तक फैल गया. सरकारी दमन के बावजूद कज्जाफी को गद्दी छोड़नी पड़ी.
छोटे देशों में राजनेताओं की जनता पर पकड़ नहीं होती
20 अक्तूबर 2011 को सिरते की एक लड़ाई में कर्नल कज्जाफी को मौत के घाट उतार दिया गया. लीबिया की आबादी 8 करोड़ के आसपास थी. छोटे देशों में जहां राजनेताओं की जनता पर पकड़ नहीं होती, वहां सत्ता पर बने रहना आसान नहीं होता. भ्रष्टाचार के घेरे में हर नेता घिर जाता है और एक समय के बाद बेरोजगारी भी बढ़ने लगती है. ताजा उदाहरण बांग्लादेश का था, जहां प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद ने अपने देश के पलायन को रोका, बांग्लादेश में बने कपड़ों की मांग अमेरिका, कनाडा समेत सभी पश्चिमी देशों में बढ़ी. लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि ठेके हसीना के पारिवारिक जनों को मिले. इसका लाभ हसीना विरोधी राजनीतिक दलों ने उठाया और वहां तख्ता पलट करवा दिया. पिछले साल 5 अगस्त को हसीना भाग कर दिल्ली आ गई थीं.
बांग्लादेश की नई सरकार और भी डुबोने वाली
ऐसा नहीं कि तख्ता पलट के बाद आई नयी सरकारें कोई क्रांतिकारी कदम उठाती हैं. हसीना के बाद बांग्लादेश में बनी अंतरिम सरकार न तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा पाई और न ही जन आक्रोश को रोकने में सक्षम हो सकी. नयी सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस वहां अल्पसंख्यकों और सेकुलर लोगों की रक्षा करने में अक्षम हैं. अभी दो दिन पहले वहां सूफी संत नूरा पगला की कब्र खोद कर शव को निकाला गया और उग्रवादियों ने उसे फूंक दिया.