पिंजरे में कैद शेर भी नेपाल की नाक में क्यों दम किए हुए हैं? | nepal government… – भारत संपर्क

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पिंजरे में कैद शेर भी नेपाल की नाक में क्यों दम किए हुए हैं? | nepal government… – भारत संपर्क

नेपाल सरकार को बाघों ने दुविधा में डाल दिया है. वो भी पिंजरे में कैद बाघों ने. सरकार फैसला नहीं ले पा रही है कि इंसानों पर हमला करने या मारने के बाद पकड़े गए बाघों का प्रबंधन कैसे किया जाए. पहले लुप्त हुए प्रजातियों के संरक्षण में सफलता के लिए नेपाल को दुनिया भर से प्रशंसा और सराहना मिली. हालांकि, इनकी बढ़ती संख्या के साथ, बाघ और इंसान के बीच हिंसक संघर्ष भी बढ़ गए हैं. कई बार लोगों को अपने जान से हाथ भी धोना पड़ा. उसके बाद सरकार ने इन खूंखार बाघों को पिंजरे में कैद करना शुरू कर दिया. सरकार का यही फैसला उनके सामने अब चुनौती बनकर खड़ा है. कैसे आइए जानते हैं…

सरकार ने बाघों को कैद करना शुरू किया लेकिन शायद उन्हें अंदाजा नहीं था कि खतरनाक बाघों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती चली जाएगी. अब पिंजरे में बंद बाघों की संख्या बढ़कर 18 हो गई है और सरकार इनका खर्चा उठाने में असक्षम है. वाइल्ड लाइफ डिपार्टमेंट के मुतबिक, कैद में एक बाघ को खिलाने में हर साल लगभग 500,000-700,000 रुपये का खर्च आता है. पर्यावरण मंत्रालय का अपने सभी कार्यक्रमों के लिए लगभग $125 मिलियन का सालाना बजट है. इस हिसाब से देखें तो वर्तमान में कैद में मौजूद 18 बाघों को खिलाने और उनकी देखभाल के लिए लगभग $100,000 आवंटित करना होगा.

पर्यावरण मंत्री दे चुके हैं विवादास्पद बयान

पिछले साल, नेपाल के पर्यावरण मंत्री ने विवादास्पद बयान भी दिया था जिससे उनकी जमकर आलोचना भी हुई. मंत्री जी ने अमीर विदेशियों को बाघों को मारने की अनुमति देने का सुझाव दिया. जिससे वाइल्ड लाइफ एक्सपर्ट, कंजरवेशनिस्ट ने नाराजगी जाहिर की. बाकी सरकारी अधिकारियों ने बाघो को तो विदेशों के चिड़ियाघरों में भेजने की भी सलाह दी थी. जबकि एनजीओ ने प्रांतीय स्तर पर बचाव केंद्रों की स्थापना की पैरवी की. कुछ शिक्षाविदों ने सुझाव दिया कि बाघों को गोली मार देना ही मानव जीवन के लिए खतरनाक माना जाता है. जानवरों के बचाव के लिए हाल ही में एक कार्यक्रम हुआ था. नेपाल के मंत्री बीरेंद्र महतो भी इसमें शामिल हुए. इस दौरान बीरेंद्र महतो ने कहा कि स्थानीय समुदाय बाघों की बढ़ती संख्या के कारण परेशान हैं तो वहीं नीति निर्माताओं का उनकी इस समस्या की तरफ कभी ध्यान नहीं जाता है. वे संरक्षण पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं.

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आखिर इस समस्या का समाधान कहां फंसा है?

टाइगर एक्शन कंजर्वेशन एक्शन प्लान (2023-2032) में भी बताया गया है कि हमलावर बाघों की बढ़ती संख्या बाघों के संरक्षण में बाधा डालती है. दस्तावेज के मुताबिक, 2019 और 2023 के बीच नेपाल में बाघों के हमलों में 38 लोगों की मौत हो गई, जिनमें से अधिकांश घटनाएं संरक्षित क्षेत्रों के बाहर, नेपाल और भारत में बाघों के आवासों को जोड़ने वाले गलियारों में हुईं. टाइगर एक्शन कंजर्वेशन एक्शन प्लान के ही मुताबिक हमलावर बाघों की बढ़ती संख्या अधिकारियों के लिए वित्तीय और तकनीकी रूप से एक कठिन काम बना हुआ है.

चिड़ियाघर और बचाव केंद्र पहले से ही इन बाघों से भरे हुए हैं. योजना में तो इन बाघों के बचाव, प्रबंधन और पुनर्वास से निपटने के लिए एक प्रोटोकॉल बनाने की बात भी कही गई है लेकिन इसे लागू करने के वो ठोस तरीके क्या हैं इस पर अब तक कोई क्लैरिटी नहीं बन पाई है. गैर सरकारी संगठनों का कहना है कि सरकार को बचाव केंद्रों में निवेश करना चाहिए जहां बाघों की देखभाल की जा सके. हालांकि वाइल्ड लाइफ डिपार्टमेंट के अधिकारी ने कहा कि किसी ने भी इसके लिए कोई फंडिंग नहीं की है या कोई ठोस प्रस्ताव नहीं दिया है.

पक्ष और विपक्ष में क्या तर्क दिए जाते हैं?

वाइल्ड लाइफ की ओर से कहा गया है कि सरकार प्रांतीय सरकारों के लिए चिड़ियाघर स्थापित करने के लिए दिशानिर्देशों पर काम कर रही है. जहां वो शैक्षिक उद्देश्यों के लिए बाघों को रख सकें. ऐसे दिशानिर्देशों की कमी से ही अक्सर देश भर के छोटे चिड़ियाघरों में जानवरों को अमानवीय परिस्थितियों में रखना पड़ता है. यहां तक ​​कि काठमांडू में केंद्रीय चिड़ियाघर में भी बाघ जैसे जानवरों के लिए सीमित स्थान और संसाधन हैं. वहीं आलोचकों का कहना है कि प्रांतीय चिड़ियाघरों में खूंखार बाघों की देखभाल करने की क्षमता नहीं होगी.

इस बीच, हाल ही में काठमांडू में ग्रासलैंड मैनेजमेंट की चर्चा में, दक्षिण अफ्रीका के एक वाइल्ड लाइफ के मैनेजर ने सुझाव दिया कि नेपाल को हमलावर बाघों को मारने से पीछे नहीं हटना चाहिए. उन्होंने कहा कि भले ही वाइल्ड लाइफ एक्सपर्ट इसे पसंद नहीं करेंगे लेकिन यही सबसे प्रभावी तरीका है. उन्होंने कहा कि बाघ को गोली मारकर किसी अज्ञात क्षेत्र में दफना देने से सभी समस्याओं से छुटकारा मिल जाता है लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह प्रथा स्वदेशी मान्यताओं और अहिंसा के सिद्धांतों के खिलाफ हो सकती है.

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