ईरान में इस्लामिक क्रांति आते ही छिड़ गई थी जंग, सद्दाम हुसैन ने पहले सुप्रीम लीडर की… – भारत संपर्क

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ईरान में इस्लामिक क्रांति आते ही छिड़ गई थी जंग, सद्दाम हुसैन ने पहले सुप्रीम लीडर की… – भारत संपर्क
ईरान में इस्लामिक क्रांति आते ही छिड़ गई थी जंग, सद्दाम हुसैन ने पहले सुप्रीम लीडर की नाक में कर दिया था दम

सद्दाम हुसैन और अली खामनाई

ईरान से जुड़ी जब भी कोई चर्चा शुरू होती है तो उसमें 1979 की ईरानी क्रांति का जिक्र आ ही जाता है. 1979 के बाद ईरान पूरी तरह बदल गया और उसने पश्चिमी देशों की मदद के बिना ही खुद को एक बड़ी क्षेत्रीय ताकत के रूप में साबित किया है. लेकिन ईरान का यहां तक पहुंचने का सफर आसान नहीं रहा है. इस्लामिक क्रांति के बाद ही उसके पड़ोसी देश इराक ने उसपर हमला कर दिया था. ईरान और इराक के बीच ये युद्ध करीब 8 साल तक चला था जिसमें दोनों ही देशों का जान और माल का खासा नुकसान हुआ था.

इराक के तत्कालीन राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने ईरान की इस्लामिक क्रांति के समय ही इराक के राष्ट्रपति की कुर्सी संभाली थी. सद्दाम हुसैन इराक के 5वें राष्ट्रपति बने थे, साथ ही वे शिया बहुल देश के सुन्नी राष्ट्रपति थे. ईरान पर हमला करने की बड़ी वजहों में एक वजह ये भी थी कि सद्दाम हुसैन को ईरान की क्रांति के बाद डर सताने लगा था कि कहीं देश के शिया मुस्लिम ईरान से प्रभावित होकर उनकी कुर्सी के लिए खतरा न बन जाएं.

दोनों देशों के विवाद की वजह

ईरान और इराक के बीच तनाव प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही चला आ रहा था. 1970 के दशक तक संघर्ष की एक वजह शट्ट अल-अरब वॉटर-वे का नियंत्रण था. जिसको टाइग्रिस और फरात नदियां बनाती थीं, इसका दक्षिणी छोर दोनों देशों के बीच सीमा भी तय करता है. 1975 में अल्जीयर्स समझौते के तहत उत्तरी इराक में कुर्द विद्रोह को ईरान ने अपना समर्थन रोक दिया गया था. इसके बदले में जलमार्ग पर इराक को अपने नियंत्रण को कम करना पड़ा था.

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लेकिन इस विवाद में नया मोड़ तब आया जब ईरान की क्रांति के बाद पश्चिमी देशों से समर्थन प्राप्त शाह मोहम्मद रेजा की सरकार को शिया धर्मगुरु अयातुल्ला रुहोल्लाह खुमैनी के नेतृत्व वाले विद्रोह ने गिरा दिया. क्रांति से कुछ ही दिन पहले अल्पसंख्यक सुन्नी मुसलमानों के समर्थन से राष्ट्रपति बने सद्दाम हुसैन को ईरान की क्रांति के शिया बहुल इराक तक विस्तार होने का डर सताने लगा था. इसके बाद सद्दाम हुसैन ने 1975 के समझौते को खत्म कर शट्ट अल-अरब वॉटर-वे पर नियंत्रण की मांग की.

इराक का ईरान पर हमला

सद्दाम हुसैन इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि क्रांति के लिए चले लंबे संघर्ष के बाद ईरान की सेना कमजोर हो चुकी है. इसका फायदा उठाते हुए इराकी सेना ने सितंबर 1980 में पड़ोसी ईरान पर फुल स्केल इंवेजन कर दिया और ईरान के एयर बेस और तेल ठिकानों पर बमबारी की. जिससे ईरान-इराक युद्ध की शुरुआत हुई. दोनों देशों में संबंध धार्मिक, क्षेत्रीय और राजनीतिक विवादों के कारण पहले से उतार-चढ़ाव भरे रहे थे. सद्दाम हुसैन के इस कदम ने आग में और घी डालने का काम किया. शुरुआत में तो इराक का इंवेजन कामयाब हुआ और उन्होंने ईरान के कुछ शहरों पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया. लेकिन बाद में उन्हें खतरनाक ईरानी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा.

1982 तक ईरान इराकी सेना को जंग से पहले की बॉर्डर लाइन के पीछे खदेड़ने में कामयाब हो गया. जिसके बाद इराक ने जंग खत्म करने के लिए समझौते की पहल की लेकिन ईरान द्वारा इसको खारिज कर दिया और ये जंग अगले 8 साल तक और चली.

8 साल की जंग का कैसे हुआ अंत?

1988 तक ईरान ने कई बार इराक की जमीन को कब्जाने की कई नकाम कौशिशें कीं लेकिन इराक सेना ने सऊदी अरब जैसे सुन्नी देशों की मदद से हर बार उनको करारा जवाब दिया. जब युद्धक्षेत्र में इराकी सेना ने फिर से बढ़त बनानी शुरू की तो ईरान के मौलवी नेताओं को अपनी निर्णायक जीत की उम्मीद बहुत कम दिखाई देने लगी. फिर जुलाई 1988 में दोनों देशों ने सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 598 के तहत संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता में युद्धविराम कर लिया. पांच लाख से अधिक सैनिकों और नागरिकों के मारे जाने के बाद औपचारिक रूप से 20 अगस्त, 1988 को ये जंग खत्म हुई.

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