वरदान से अभिशाप बने प्लास्टिक के बड़े खतरों से कैसे निपटें, कनाडा में हो रहा मंथन |… – भारत संपर्क

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वरदान से अभिशाप बने प्लास्टिक के बड़े खतरों से कैसे निपटें, कनाडा में हो रहा मंथन |… – भारत संपर्क

बेल्जियम मूल के एक अमरीकी वैज्ञानिक हुए हैं- लियो बेकलैंड. 1907 में प्लास्टिक का अविष्कार इन्होंने ही किया था. तब इसे मानव जीवन के लिए वरदान से कम नहीं माना गया लेकिन आज यही प्लास्टिक अभिशाप बनता जा रहा है. मिसाल के तौर पर, आपको अपने आसपास ही प्लास्टिक की कई सारी चीज़ें नज़र आएंगी. आप जिस इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस में यह खबर पढ़ रहे हैं, आपके कपड़े, चप्पल या जूते, बिस्तर, बोतल हर चीज में तो प्लास्टिक ही भरा पड़ा है.

इस धरती पर ऐसी कोई जगह नहीं बची जो प्लास्टिक की पहुंच से बाहर हो. चाहे वो ईरान के रेगिस्तान हों, पृथ्वी का सबसे सुदूर इलाका अंटार्कटिका हो या माउंट एवरेस्ट की चोटी हो, प्लास्टिक यहां भी आपको मिल जाएंगे. ऊपर से प्लास्टिक के ज्यादा इस्तेमाल से फैलने वाला प्रदूषण भी दुनिया के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन चुका है.

बर्कले नेशनल लेबोरेटरी ने सप्ताह भर पहले एक रिपोर्ट जारी की थी. इस रिपोर्ट के मुताबिक प्लास्टिक उत्पादन की वजह से 2019 में 2.24 गीगाटन के बराबर कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन हुआ था, जोकि 2019 में हुए कुल वैश्विक उत्सर्जन के 5.3 फीसदी के बराबर है.

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कनाडा में किस मकसद से जुटे हैं देश?

बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण से निजात पाने के मकसद से ही दुनिया भर के नेता कनाडा की राजधानी ओटावा में एकजुट हो चुके हैं. ये संयुक्त राष्ट्र की इंटर गवरमेंटल नेगोशिएटिव कमिटी यानी आईएनसी की मीटिंग है. सेशन 23 अप्रैल शुरू हो चुका है और 29 अप्रैल तक चलेगा.

मीटिंग में प्लास्टिक से जुड़े हर पहलुओं पर मंथन होगा, जिसमें समुद्री पर्यावरण सहित बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण पर लगाम लगाने जैसे एजेंडे शामिल है. ये इस मसले पर होने वाली आईएनसी की चौथी बैठक है. इस ऐतिहासिक संधि को साल 2024 के अंत तक अंतिम रूप दिए जाने की उम्मीद है.

पहले तीन मीटिंग कहां कहां हुई है?

प्लास्टिक प्रदूषण को खत्म करने के लिए पहली बैठक 2022 के दिसंबर महीने में उरुग्वे के पुंटा डेल एस्टे में हुई थी. इस पहले सेशन को आईएनसी-1 यानी इंटर गवरमेंटल नेगोशिएटिव कमिटी के रूप में जाना जाता है. इसके बाद बातचीत का दूसरा दौर 2023 के मई से जून के बीच पेरिस में आयोजित हुआ. वहीं तीसरा सत्र आईएनसी-3 नवंबर 2023 के बीच नैरोबी में बुलाया गया था.

प्लास्टिक संधि पर बंटी है दुनिया

हालांकि बातचीत तेल उत्पादक देशों के रुख के चलते अधर में अटक गई थी. दरअसल अमेरिका और सऊदी अरब जैसे प्रमुख तेल और गैस उत्पादकों ने प्लास्टिक उत्पादन में कटौती के पक्ष में नहीं थे. वजह है प्लास्टिक का उत्पादन, जो ज्यादातर तेल के उत्पादन पर निर्भर करता है. मतलब ये हुआ कि प्लास्टिक की मांग बढ़ेगी तो तेल का प्रोडक्शन भी उसी क्रम में बढ़ेगा.

यही है एक पेंच है जिससे सहज ही सवाल उठ रहे हैं कि क्या इस बार की मीटिंग सभी देशों को एकजुट करने में कामयाब होगी. यह चिंता तब और बढ़ जाती है जब ये अनुमान है कि 2060 तक प्लास्टिक उत्पादन तीन गुना होने की राह पर है.

अगर उत्पादन इसी तरह बढ़ता गया तो प्लास्टिक बनने के प्रोसेस के दौरान ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन दोगुना से अधिक हो जाएगा. जो कि वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के अंतरराष्ट्रीय लक्ष्य को पाने में रोड़ा बन सकता है.

ऐसे में सबकी निगाहें इस बातचीत पर टिकी हैं, इस उम्मीद के साथ कि सभी पक्ष अपने व्यक्तिगत हितों और मतभेदों को दरकिनार कर लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर गौर करेंगे. अब कुछ ऐसी रिपोर्ट पर नजर डाल लेते हैं ये समझने भर के लिए क्यों प्लास्टिक से छुटकारा पाने की जरूरत है. इसके क्या क्या खतरे हैं..

प्लास्टिक कचरे में बेतहाशा बढ़ोतरी

यूनाइटेड नेशंस इनवायरमेंट प्रोग्राम के मुताबिक हर दिन, प्लास्टिक से भरे 2,000 कचरा ट्रकों को दुनिया के महासागरों, नदियों और झीलों में फेंक दिया जाता है. लोग तेजी से प्लास्टिक के इन छोटे कणों में सांस ले रहे हैं, खा रहे हैं और पी रहे हैं.

द साइंस जर्नल में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2040 तक पूरी दुनिया में क़रीब 1.3 अरब टन प्लास्टिक जमा हो जाएगा. अकेले भारत हर साल 33 लाख टन से अधिक प्लास्टिक पैदा करता है. प्लास्टिक उद्योग अब वैश्विक कार्बन उत्सर्जन का 5% हिस्सा है, अगर ऐसा ही चलता रहा तो 2050 तक 20% तक बढ़ सकता है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक आज सालाना करीब 40 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा पैदा हो रहा है.

एक दूसरे अनुमान के मुताबिक अब तक 110,00,000 टन प्लास्टिक महासागरों की अथाह गहराइयों में जमा हो चुका है. जिससे आप साफ तौर पर समझ सकते हैं कि प्लास्टिक से समुद्री जीवन भी सुरक्षित नहीं रह गई है. यूनाइटेड नेशंस इनवायरमेंट प्रोग्राम के ही मुताबिक प्लास्टिक के मलबे से हर साल दस लाख से अधिक समुद्री पक्षी और 1,00,000 समुद्री स्तनधारी मारे जाते हैं.

प्लास्टिक से भी बड़ा खतरा माइक्रोप्लास्टिक

समस्या सिर्फ यह प्लास्टिक और उससे पैदा होने वाला कचरा ही नहीं है. इससे पैदा हुआ माइक्रोप्लास्टिक भी परेशानी का सबब बन चुका है. ये हमारे चारों ओर फैला हुआ है और अफसोस लोगों को फिर भी इसके बारे में न के बराबर जानकारी है.

जब प्लास्टिक के बारीक़ टुकड़े बहुत छोटे आकार में टूट जाते हैं तो उन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है. नेशनल ओशनिक एंड एटमोस्फियरिक एडमिनिस्ट्रेशन NOAA के अनुसार, माइक्रोप्लास्टिक 0.2 इंच (5 मिलीमीटर) से छोटे प्लास्टिक के कण हैं. देखने में इनका आकार एक तिल के बीज के बराबर हो सकता है.

हाल अब यह है कि मानव शरीर भी माइक्रोप्लास्टिक की पनाहगाह बनता जा रहा है. 2020 में, एक अध्ययन में पहली बार अजन्मे शिशुओं के प्लेसेंटा में माइक्रोप्लास्टिक कण पाए गए. शोधकर्ताओं ने इसे बड़ी चिंता का विषय बताया. एनवायरनमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी जर्नल की एक रिपोर्ट आई थी जिसमें कहा गया कि लोग हर साल 39,000 से 52,000 माइक्रोप्लास्टिक के कणों को निगल जाते हैं. इसके अपने अलग खतरे हैं, जैसे रक्तचाप में बढ़ोतरी, तंत्रिका प्रणाली पर असर और किडनी को नुकसान

प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज नाम की संस्था की भी रिपोर्ट की जानकारी होनी जरूरी है. पूरी स्टडी आपकी उस प्लास्टिक बॉटल के इर्द गिर्द ही है जिसे आप ऑफिस ले जाते हैं, घूमने-फिरने जाने पर साथ ले जाते हैं. रिपोर्ट के मुताबिक एक लीटर पानी में लगभग 2 लाख 40 हजार प्लास्टिक के बेहद महीन टुकड़े होते हैं. यह हाल तब है जब इसमें टॉप 10 ब्रांडेड पानी के बॉटल शामिल किए गए.

स्वास्थ्य पर भी खतरे कई है!

इस बात के कई संकेत मिले हैं कि सांस में घुलकर जाने वाला प्लास्टिक हमारे फेफड़ों को बहुत नुकसान पहुंचा रहा है. इस बारे में वैज्ञानिक रिसर्च कर रहे हैं कि अगर लंबे समय तक यह प्लास्टिक जमा होता रहा तो क्या होगा?

वैज्ञानिकों ने यहां तक चेताया है प्लास्टिक कैंसर, जन्मजात विकलांगता और फेफड़ों की बीमारी सहित कई प्रकार की बीमारियों का कारण बनता हैं. एक जाने माने कैंसर रिसर्चर लुकास केनर की स्टडी कहती है कि पर्यावरण में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक इंसानों में कैंसर सेल्स के प्रसार को तेज कर सकते हैं.

अगली दो पीढ़ियां हो सकती हैं प्रभावित

यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, रिवरसाइड के अध्ययन से पता चला है कि प्लास्टिक में मौजूद हानिकारक केमिकल्स अगली दो पीढ़ियों में मेटाबॉलिक डिजीज का कारण बन सकते हैं. प्लास्टिक में एंडोक्राइन डिसरप्टिंग केमिकल होते हैं जो जीवों के हार्मोनल और होमोस्टैटिक सिस्टम में बदलाव कर सकते हैं. होमोस्टैटिक सिस्टम का काम होता है पर्यावरण में हो रहे बदलावों के दौरान किसी भी जीव के आंतरिक स्थिरता को बनाए रखना.

अब इन पर असर पड़ेगा तो शारीरिक विकास, मेटाबॉलिस्म, प्रजनन और भ्रूण का विकास प्रभावित हो सकता है. शोध से ये भी पता चला है कि माता-पिता के ईडीसी के संपर्क में आने से बच्चों में मोटापा और मधुमेह हो सकते हैं.

प्लास्टिक में 16 हजार से ज्यादा केमिकल्स

यूरोपियन वैज्ञानिकों की टीम ने अपनी नई रिपोर्ट में प्लास्टिक में 16,325 केमिकल्स के होने की पुष्टि की है. यह वो केमिकल्स है जो जानबूझकर या अनजाने में प्लास्टिक्स में मौजूद होते हैं. हैरानी की बात ये है कि ये संयुक्त राष्ट्र के पिछले अनुमान से 3,000 से भी अधिक हैं.

हालांकि इनमें से सिर्फ छह फीसदी केमिकल्स ऐसे हैं, जिन्हें फिलहाल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रेगुलेट किया जाता है, इसके बावजूद कई रसायनों का उत्पादन बड़ी मात्रा में किया जाता है जिनसे बेहद ज्यादा खतरे की आशंका होती है. इनमें से करीब 26 फीसदी यानी 4,200 केमिकल इंसानी स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए चिंता का विषय हैं.

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