सावन का महीना पवन करे ‘शोर’ या ‘सोर’… क्या है मिलन फिल्म के इस गाने का मतलब? – भारत संपर्क


‘पवन करे सोर’ की कहानी
सावन पर बहुत सारे फिल्मी गाने हैं. सभी गाने सुहाने और मनभावन हैं. मसलन आया सावन झूमके, सावन को आने दो, अब के सजन सावन में, सावन के झूलों ने, लगी आज सावन की, पड़ गए झूले सावन ऋतु आए, तेरी दो टकिये की नौकरी में मेरा लाखो का सावन जाए वगैरह. लेकिन इन सबके इतर आज उस गाने की चर्चा जिसे सुनने के बाद पचपन साल बाद भी हर किसी का जियरा ऐसे झूमने लगता है मानो वन में मोर नाच रहा हो. इस गाने के बोल हैं- सावन का महीना पवन करे… इसके आगे ‘शोर’ कहूं या ‘सोर’? यकीन मानिए इस सवाल में ही इस गाने की रोमांटिकता, आंचलिकता और सौंदर्यबोध सबकुछ छिपा है. यही वजह है सावन पर केंद्रित सभी गानों में यह सबसे अलग हो जाता है. आइये समझने की कोशिश करते हैं, ये ‘शोर’ बनाम ‘सोर’ क्या है?
सबसे पहले आपको बताएं कि यह गाना अपने समय की प्रसिद्ध हिंदी फिल्म मिलन का है. यह फिल्म सन् 1967 में रिलीज हुई थी. इस फिल्म में सुनील दत्त, नूतन, जमुना, प्राण, देबेन वर्मा जैसे कलाकारों ने अभिनय किया था. पुनर्जन्म और प्रेम कहानी इस फिल्म का मुख्य प्लॉट था. मुकेश और लता मंगेशकर की आवाज में गाए गए इस फिल्म के सारे गाने अत्यंत मधुर हैं तो दिलों में दर्द जगाने वाले भी. इन गानों को लिखा था- आनंद बख्शी ने और संगीत दिया था लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने. इस फिल्म के हिट होने से लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी और भी मशहूर हुई.
‘शोर’ बनाम ‘सोर’ का मतलब समझें
चलिए वापस आते हैं मिलन फिल्म के इस मशहूर गाने सावन का महीना पवन करे ‘शोर’ बनाम ‘सोर’ पर. आनंद बख्शी ने क्यों लिखा था ऐसा? भाषाई शुद्धता के हिसाब से ‘शोर’ होता है लेकिन इस गाने में आनंद बख्शी ने ‘सोर’ क्यों लिखा? गाने की शुरुआती पंक्तियों पर गौर कीजिए. गाने के सीन में सुनील दत्त गांव के किसान हैं तो नूतन बड़े घराने की बेटी. सुनील दत्त नूतन को गीत-संगीत सिखा रहे हैं.
सबसे पहले सुनील दत्त गाते हैं- सावन का महीना, पवन करे सोर
फिर नूतन दुहराती है- सावन का महीना, पवन करे शोर
सुनील दत्त फिर गाते हैं- पवन करे सोर
लेकिन फिर नूतन गाती हैं- पवन करे शोर
तब बीच में सुर तोड़कर सुनील दत्त गाते हैं- अरे बाबा शोर नहीं, सोर, सोर, सोर …
इसके बाद दोनों गाते हैं- पवन करे सोर… आगे- जियरा रे झूमे ऐसे, जैसे बनमा नाचे मोर
गांव का देशज और शहरी शब्द का टकराव
वास्तव में इसी में छुपा है ‘शोर’ बनाम ‘सोर’ का रहस्य. सुनील दत्त का किरदार गोपीनाथ ग्रामीण पृष्ठभूमि का है, जबकि नूतन का किरदार राधा देवी एक शिक्षित और शहरी परिवेश में पला बढ़ा है. उसे ग्रामीण संस्कृति, खेती-किसानी में रुचि है और खास तौर पर सुनील दत्त के किरदार के गंवईपन और भोलेपन को वह बहुत पसंद करती हैं. दोनों की भाषा और शब्दों के उच्चारण में खासा फर्क है. सुनील दत्त लोकगीत की शैली में गंवई शब्दों का उच्चारण ज्यों का त्यों कर रहे हैं. शहरी शब्दों का ग्राम्यकरण कर रहे हैं जबकि नूतन ग्रामीण शब्दों का मानकीकरण कर रही हैं.
गीतकार आनंद बख्शी ने इस गाने में लोक गीत के लिए देशज शब्द और उच्चारण का बहुत ही नाजुकता के साथ ख्याल रखा है. सहजता को बनाए रखा है. मुकेश और लता मंगेशकर ने इस गाने के मुखड़े की बातचीत को भी अत्यंत सुरीला बना दिया है. फिल्मी गाने में देशज या अपभ्रंश का यह अनोखा प्रयोग था- जियारा रे झूमे ऐसे, जैसे बनमा नाचे मोर. जियरा और बनमा जैसे शब्दों पर गौर कीजिए. जियरा मतलब ह्रदय और वन का अपभ्रंश है- बनमा.
गाने में पुरवैया, खिवैया, मौजवा शब्द भी
इतना ही नहीं इस गाने के कुछ और शब्दों पर गौर कीजिए- मसलन रामा गजब ढाए, ये पुरवैया, खिवैया, मौजवा करे क्या जाने हमको इसारा… यहां फिर नदी की लहरों यानी मौजों के लिए मौजवा अपभ्रंश लिखा गया है तो इशारा के बदले इसारा गाया गया है. गांव के लोग श और स का अंतर नहीं जानते. इस गाने में इसका ख्याल रखा गया है. इसके बाद के अंतरे की पंक्तियों के प्रमुख देशज शब्द हैं- जिनके बलम बैरी गए हैं बिदेसवा, प्यार का संदेसवा, कारी मतवारी घटाएं वगैरह. पूरे गाने आंचलिकता की अद्भुत छटा है.
वैसे सावन के इस लोकप्रिय गाने में शोर बनाम सोर या इतने सारे देशज शब्दों को लिखे जाने के पीछे भी एक कहानी है. आनंद बख्शी ने शोर को सोर क्यों लिखा और गाने के मुखड़े में वह बातचीत की शैली कैसे पिरोई. आनंद बख्शी ने इसके बारे में अपने एक इंटरव्यू में वह कहानी सुनाई थी. वैसे कुछ समय पहले आई आनंद बख्शी की ‘जीवनी नगमे किस्से बातें यादें’ में भी उनके अनेक गानों से जुड़े कई रोचक प्रसंग दर्ज हैं. आनंद बख्शी के बेटे राकेश आनंद बख्शी ने यह पुस्तक लिखी थी.
आनंद बख्शी ने सुनाई थी इसकी कहानी
आनंद बख्शी ने अपने इंटरव्यू में बताया था कि अपने सामने घटित एक वाकये को उन्होंने इस गाने में मुखड़े में ढाल दिया था. वाकया ये था कि एक पान की दुकान पर उन्होंने यह बातचीत सुनी थी. दुकान पर एक शख्स ‘शोर’ कहकर गा रहा था तो वहीं पान वाले ने उसे टोका- शोर नहीं सोर. पान वाला भी गंवई था और दूसरा शख्स शहरी. उन दोनों का संवाद आनंद बख्शी को इतना रोचक लगा कि उन्होंने इसे अपने गाने में इस्तेमाल कर लिया. बाद में इस बोल पर लक्ष्मीकांत प्यारे लाल ने ऐसा संगीत रचा, उसे लता और मुकेश ने अपनी आवाज दी, जिस पर सुनील दत्त और नूतन ने ऐसी अदाकारी पेश की, कि वह गीत अमर हो गया.
यकीनन सावन हो या ना हो, यह गाना जब भी सुनाई देता है, हमारे आस-पास सावन का माहौल बना देता है, रुह में सावन का अहसास जगाता है.
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