‘वन डे हंगर स्ट्राइक’… सुल्तानपुर के अभिषेक की वो मुहिम जो भर रही गरीबों … – भारत संपर्क

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‘वन डे हंगर स्ट्राइक’… सुल्तानपुर के अभिषेक की वो मुहिम जो भर रही गरीबों … – भारत संपर्क

ग्रामीण पृष्ठभूमि के किशोर अभिषेक ने 2014 में बीएससीकी पढ़ाई के लिए के.एन.आई. सुल्तानपुर में प्रवेश लिया था. कॉलेज के एक रक्तदान शिविर में प्लास्टिक एनीमिया के मरीज के लिए रक्तदान किया. मरीज के पिता की आंखों से ढलकते आंसुओं ने उन्हें भीतर तक भिगो दिया. गोमती नदी के पुल से गुजरते समय किनारों पर बैठे लाचारों को देख हूक उठी कि इनका कौन है? एक बूढ़े ने पानी मांगा. पता चला तीन दिन से खाने को एक दाना भी नसीब नहीं हुआ. सड़क किनारे पड़े उस बदनसीब के खुले घावों में कीड़े पड़ रहे थे. व्यथित अभिषेक की जिंदगी का मकसद बदल गया. खुद को निःस्वार्थ सेवा-सहयोग के लिए समर्पित कर दिया. 11 साल गुजर चुके हैं. अब वो जवान हैं. हौंसले आसमान पर हैं.
अब तक 42 बार रक्तदान कर चुके हैं. शहर में कोई भूखा न सोए, इसके लिए ‘वन डे हंगर स्ट्राइक’ मुहिम वर्षों से जारी है. सड़कों के किनारे, स्टेशनों या खुले आसमान के नीचे पड़े भूखे, बीमार, घायल लावारिसों की फिक्र करते हं. खाना खिनलाते हैं. नहलाना-धुलाना, कपड़े पहनाने और मरहम-पट्टी जैसे कठिन कामों में वे और कुछ साथी जुटे रहते हैं. अस्पतालों में सिर्फ भर्ती नहीं कराते. वहां पहुंचाने के बाद भी सेवा और देखभाल का सिलसिला जारी रहता है. जो भटके कुछ सूत्र दे देते हैं, उन्हें घर भी पहुंचवा देते हैं. उनकी कोशिशों का फलक बहुत बड़ा है. संकल्पों को सच में बदलने में न जेठ की चटकती दोपहरें उन्हें रोक पाती हैं और न पूस की ठिठुरती रातें. खुद पता करते रहते हैं या फिर कहीं से खबर मिलते ही मदद को दौड़ पड़ते हैं. खुदगर्जी के बढ़ते अंधेरे और अपनों की सिकुड़ती दुनिया के बीच उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर शहर से उम्मीदों की रोशनी बिखेरती एक सच्ची कहानी…

42 रक्तदान- जीवन संगिनी भी उसी राह
सुल्तानपुर के कमला नेहरू भौतिक और सामाजिक संस्थान में 2014 के उस रक्तदान शिविर का आयोजन विधि विभाग के प्रोफेसर डॉ. सुशील कुमार सिंह ने किया था. जरूरतमंद मरीजों को रक्तदान करने में सुल्तानपुर वासी डॉ. सुशील कुमार सिंह आगे रहते हैं. फिलहाल महावीर तीर्थंकर यूनिवर्सिटी मुरादाबाद में लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल हैं. अब तक 57 बार रक्तदान कर चुके हैं. उनके प्रेरक व्यक्तित्व ने अभिषेक के किशोर मन को छू लिया. उसी दौरान समाजसेवी डॉ. आशुतोष श्रीवास्तव से भेंट हुई. उनके रक्तदान की संख्या 75 पहुंच चुकी है.
समाजसेवी करतार केशव यादव का नाम गांव में रहने के दौरान ही सुना था. 40 बार रक्तदान कर चुके करतार जी चार दशकों से जरूरतमंदों की सेवा, सहायता की अनथक यात्रा पर हैं. इन सबकी प्रेरणा ने अभिषेक को रक्तदान की मुहिम से जोड़ दिया था. प्लास्टिक एनीमिया के जिस मरीज राजन के लिए पहली बार रक्तदान किया था, उसको उससे पहले 82 यूनिट रक्त चढ़ाया जा चुका था. राजन के पिता के कृतज्ञता के आंसुओं और दर्द ने अभिषेक को अहसास कराया कि जीवन तभी सार्थक जब किसी दूसरे का दर्द कम किया जा सके. तबसे वे 42 बार रक्तदान कर चुके हैं. डेढ़ साल पहले शादी हुई. जीवनसंगिनी शिवानी भी उसी रास्ते पर हैं. सगाई की खुशी में रक्तदान किया. शादी के बाद भी दो बार रक्तदान कर चुकी हैं.
उनकी सेवा जिनका कोई नहीं
उस दौर में जब सम्पन्न-समृद्ध परिवारों के बूढ़े-बीमार खुद को अकेला पा रहे हैं, उस कठिन समय में अभिषेक और उनके साथी सुल्तानपुर के सरकारी अस्पताल से लेकर सड़कों या फिर स्टेशनों पर पड़े लाचार और असहाय मरीजों की सेवा का अनूठा अभियान चलाए हुए हैं. इसमें ऐसे असहाय भी हैं, जो अपनी याददाश्त खो चुके हैं. मुसीबतों ने जिन्हें लगभग विक्षिप्त कर दिया है, उनके पास न खाना है और न सिर छिपाने का ठिकाना. खुले घावों पर कीड़े रेंग रहे हैं. दर्द हदों को पार कर उन्हें कष्टों से बेखबर कर चुका है. परिवार-समाज उन्हें भुला चुका है और प्रशासन के पास उनके लिए फुर्सत नहीं है. अभिषेक और उनके साथी प्रज्ज्वल, अनिमेष, विपिन, अनुज, निशांत, अभिषेक सोनी ऐसे अनेक युवक अंकुरण फाउंडेशन और गायत्री परिवार से जुड़कर सेवा-सहयोग के सफर में उनके लिए बहुत कुछ कर रहे हैं, जिनका कोई नहीं है.
वो अनजानी मां: सेवा से अंतिम संस्कार तक
सुल्तानपुर के जिला अस्पताल (अब मेडिकल कॉलेज) के सेप्टिक वार्ड में भर्ती वो बूढ़ी मां बोल भी नहीं पाती थीं. दो साल तक अभिषेक उसकी सेवा करते रहे. आंखें अभिषेक का इंतजार करती रहती थीं. खाना भी उन्हीं के हाथों से खाती थीं. निधन बाद अंतिम संस्कार भी अभिषेक और उनके साथियों ने किया. सीतामढ़ी (बिहार) के राजेश्वर सिंह शहर में बेचारगी की हालत में मिले. घावों में कीड़े पड़ गए थे. महीनों की सेवा बाद ठीक हुए. घर वापस भेजे गए. विलासपुर (छत्तीसगढ़) के शीतल भटकते हुए सुल्तानपुर रेलवे स्टेशन पहुंच गए.
सेवा-सहायता बाद उनकी वापसी संभव हुई. जबलपुर के केशव कुड़वार नाका पर मिले. घावों में कीड़े पड़ गए थे. बांदा निवासी राम केवल जिला अस्पताल के गेट पर घायलावस्था में पड़े थे. लालगंज (आजमगढ़) के कुलदीप गोलाघाट पर और कौड़िहार (प्रयागराज) के राजन फुटपाथ पर बुरी हालत में पड़े मिले थे. सूची लंबी है. कुछ के नाम हैं. तमाम अनाम हैं, लेकिन सेवा करने वाले हाथों को उनके नामों या पहचान से मतलब नहीं है. वे सिर्फ अपना काम करते हैं.
सेवा के लिए धैर्य जरूरी
इन अनजान जरूरतमंदों की सेवा में अभिषेक और उनके साथियों को काफी धैर्य का परिचय देना पड़ता है. अनेक आसानी से बातचीत या अपनी तकलीफों के बारे में बोलने को तैयार नहीं होते. खाना या कुछ मदद स्वीकार करने के लिए उन्हें तैयार करना पड़ता है. धीरे-धीरे भरोसा हासिल होता है. नहलाने-धुलाने या गंदगी दूर करने की कोशिश में यदा-कदा वे बिगड़ भी पड़ते हैं. उनके घावों की सफाई और मरहम-पट्टी काफी कठिन कार्य है.
ये सब काम किसी एक दिन रस्म अदायगी के तौर पर नहीं किए जाते. अगले दिन उन्हें पुराने ठिकानों पर ढूंढा जाता है. न मिलने पर शहर के तमाम कोने छाने जाते हैं. पूरी कोशिश होती है कि उनके जख्म भर जाएं. वे साफ-सुथरे रह सकें और उनके तन पर कपड़े बने रह सकें. अभिषेक सिंह बताते हैं कि इनमें कुछ संभल भी जाते हैं. कुछ परिवार के बारे में बता पाते हैं तो उन्हें घर वापस भी भिजवा दिया जाता है, लेकिन जिनका कोई नहीं है, उनकी स्थायी व्यवस्था तो शासन के ही भरोसे है.
सहयोग की कमी नहीं, जरूरत भरोसे की
पिछले तीन वर्षों से अभिषेक की टीम ने सुल्तानपुर शहर में अभियान चलाया है कि कोई जरूरतमंद भूखा न सोए. साधन जुटाने के लिए लोगों से महीने में एक वक्त उपवास रखने और उससे बचने वाले 50 रुपए ‘वन डे हंगर स्ट्राइक’ को देने की अपील की गई. धन जुटने में कोई दिक्कत नहीं आती. तमाम लोगों ने परिवार के शुभ अवसरों पर खर्च होने वाली राशि इस मुहिम में देनी शुरू कर दी. युवाओं की टीम शाम से रात तक सड़कों के किनारे और सार्वजनिक स्थलों पर मौजूद ऐसे जरूरतमंदों की पहचान करती है और फिर ढाबों से भोजन पैक कराकर उन्हें उपलब्ध करा देती है.
सेवा के इस सफर में अभिषेक को किसी से शिकायत नहीं है. उनका कहना है कि सहयोग करने वालों की कमी नहीं है. जरूरत भरोसा हासिल करने की होती है. ये भरोसा ईमानदार कोशिशों से मुमकिन होता है. अभिषेक और साथी समाज का भरोसा हासिल करने में सफल रहे हैं. इस भरोसे ने उन्हें सम्मान-सराहना भी दी है. 28 साल के अभिषेक स्वामी विवेकानंद यूथ अवॉर्ड, उत्तर प्रदेश रत्न और रक्तयोध्या सम्मान जैसे अनेक सम्मानों से अलंकृत हो चुके हैं. “किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो अपने दिल में प्यार” को वे सिर्फ गुनगुनाते नहीं. उन्होंने तो इसे आचरण में उतारा है.

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