डकैतों के इलाके में अकेली तांगेवाली बसंती ने जब सबके होश उड़ाये… फिल्मों में… – भारत संपर्क

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डकैतों के इलाके में अकेली तांगेवाली बसंती ने जब सबके होश उड़ाये… फिल्मों में… – भारत संपर्क
डकैतों के इलाके में अकेली तांगेवाली बसंती ने जब सबके होश उड़ाये... फिल्मों में महिला सशक्तिकरण की सबसे बिंदास कैरेक्टर

शोले के एक सीन में धर्मेंद्र और हेमा मालिनी

याद कीजिए धर्मेंद्र-अमिताभ-हेमा मालिनी की ब्लॉकबस्टर फिल्म शोले, जिसके डायलॉग सुनकर लोगों के आज भी कान खड़े हो जाते हैं. फ्लैश बैक 1975 के ज़माने में ले जाता है. पहाड़ियों से घिरा एक सुनसान इलाका, ऊंची-ऊंची चट्टानों पर बंदूक लिये गब्बर सिंह और उसके गिरोह के कालिया, सांभा का बसेरा. ट्रेनों की स्पीड से रेस लगाते हिनहिनाते घोड़ों पर सवार लुटेरे डकैतों का आतंक. जिसके नाम से ढाई कोस दूर माएं अपने बच्चों का खैर मनाती हैं- उसी दायरे में है एक गांव, नाम है- रामगढ़, जहां रहती है बसंती. हिम्मत, हौसले और अपने पैरों पर खड़ी होने की चेतना से लैस वह एक बला की नारी है. उसका किरदार उस सिचुएशन में किसी चुनौती से कम नहीं. उस बसंती या बसंती जैसियों की उड़ान को आज दाद देने का दिन है जो अच्छे-अच्छे को होश उड़ा देने के लिए जानी जाती हैं.

हेमा मालिनी इससे पहले सन् 1972 में रमेश सिप्पी की ही एक फिल्म में सीता और गीता दोनों बन चुकी थीं. लिहाजा बसंती के जज्बात को बखूबी जी सकती थीं. उन्होंने अब बसंती को भी अमर कर दिया. अपनी अभिनय क्षमता से बसंती को जो हिम्मत और ताकत दी, वह महिला सशक्तिकरण की सबसे बिंदास कैरेक्टर बन गई. वह गीता से दो कदम आगे थीं. बसंती 1975 के ज़माने में उस इलाके में तांगे चलाती है, जो गब्बर सिंह के खौफ से कांपता था. कहानी काल्पनिक है. सलीम-जावेद की जोड़ी ने पहले कागजों पर लिखी, फिर पर्दे पर उतारी. इसकी कल्पनाशीलता में एक महिला की ना केवल साहसिकता रची बसी बल्कि उसमें आत्मनिर्भरता की भी मिसाल पिरोई.

शोले की बसंती आत्मनिर्भर महिला की प्रतीक

बसंती घर चलाने के लिए तांगा चलाती है. यही उसकी और उसकी मौसी की आजीविका का आधार है. उसे अपना, मौसी का और धन्नो का पेट पालना है. घर में कोई पुरुष तीसरा किरदार नहीं है. इस प्रकार बसंती आत्मनिर्भरता की प्रतीक भी बन जाती हैं. सबसे कमाल की बात तो ये है कि शोले महिला प्रधान फिल्म नहीं थी लेकिन महिला सशक्तिकरण के हौसलों से युक्त है. तब राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का ऐसा जोर नहीं था. शोले 15 अगस्त, 1975 को रिलीज हुई थी. उस हिसाब से इस वर्ष उस फिल्म के पचास साल पूरे हो जाएंगे.

देश में उसी साल जून में राष्ट्रीय आपातकाल लगा था. शोले आपातकाल के साये में ही रिलीज हुई थी. वास्तविक जिंदगी में एक तरफ राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर महिला प्रधानमंत्री के शासन की तूती बोलती थी, दूसरी तरफ सिनेमा के पर्दे पर किसी को भी दो टूक सुनाने वाली बसंती, चाबुक से उसके डायलॉग, रूप यौवन से भरपूर, ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर तांगे के तेज भागते पहिये और उसकी धन्नो की टापों के चर्चे आम थे.

बिन मां-बाप की बसंती ने संभाली जिम्मेदारी

सिनेमा के विद्वान आज भी मानते हैं- तीन किरदारों-कलाकारों के दमखन ने शोले को सबसे ज्यादा भड़काया- गब्बर सिंह बने अमजद खान, ठाकुर बने संजीव कुमार और बसंती बनीं हेमा मालिनी. जय-वीरू के रूप में धर्मेंद्र-अमिताभ बच्चन तो जैसे इनके सहायक कलाकार थे. फिल्म के कुछ सीन बड़े ही बिंदास हैं. जय-वीरू ट्रेन से उतरते हैं. रामगढ़ में ठाकुर बलदेव सिंह के घर जाने के लिए स्टेशन से बाहर निकलते हैं. सामने तांगे के साथ एक खूबसूरत युवती दिखती हैं. वह बसंती है.

बसंती दोनों को कहती- हां, बाबूजी-कहां जाओगे, बेलापुर, रामगढ़ फतेहगढ़.. कहां जाना है…

जय-वीरू हक्का बक्का हैं. एक खूबसूरत युवती तांगा लेकर खड़ी है और कितनी हिम्मत से पूछ रही है- बाबूजी कहां जाना है! उसे तो जवाब ही नहीं सूझ रहा.

तब बसंती फिर बोलती है- क्या देखते हो बाबूजी, क्या कभी तांगा नहीं देखा पहले… ये गांव खेड़ा है साहेब.. यहां मोटर गाड़ी नहीं मिलेगी कि बैठे और गर्रर्रर्र से चल दिये… यहां तो बसंती का तांगा ही चलता है… देखो, मुझे बेफिजूल की बातें करने की आदत तो है नहीं… नहीं जाना तो कोई बात नहीं… अरे ये तो बसंती का तांगा है… किसी जमींदार की बेकारी थोड़ी है कि मर्जी न मर्जी करना ही पड़े…बेलापुर का दो रुपया और रामगढ़ का डेढ़ रुपये… बसंती जो बोल गई सो बोल गई…हां..

आगे जय-वीरू तांगे पर सवार हो जाते हैं. चल् धन्नो… की हुंकार के साथ बसंती तांगा दौड़ाने लगती है. रास्ते में बसंती बहुत ही हल्के अंदाज में कुछ पते की बात कहती है, जिसे ध्यान देने की जरूरत है- मां-बाप तो मेरे पहले से ही नहीं थे… मौसा के बाद मौसी और तांगे की जिम्मेदारी हम पर आ गई…अब लोग हमसे ये भी कहते हैं बसंती लड़की होकर तांगा चलाती है- तो हम उसको ये जवाब देते हैं कि धन्नो घोड़ी होकर तांगा खींच सकती है तो बसंती लड़की होकर तांगा क्यों नहीं चला सकती?

अब आपको जानकर आश्चर्य होगा कि देश ही नहीं बल्कि एशिया की पहली महिला ट्रेन ड्राइवर सन् 1989 में सामने आईं, जिसका नाम है- सुरेखा यादव. यह तथ्य इतिहास के पन्नों में दर्ज है. आशय कहने का ये कि सिनेमा मेलोड्रामा का मनोरंजन जरूर है लेकिन यहां की कल्पना सामाजिक धरातल के इतर नहीं. हमारी जिन्दगी और पूरी सोसायिटी भी मेलोड्रामा के रंगायनों से भरी है.

स्त्री का हर रूप सिनेमा के पर्दे पर शक्ति समान

सिनेमा के पर्दे पर हम महिलाओं के अनेक रूप देख चुके हैं. औरत, रोटी बनाने बनाने वाले महबूब खान ने जब समझा कि वह एक भारतीय महिला की मेहनतकश उड़ान और संघर्ष को ठीक से चित्रित नहीं कर सके तो उन्होंने मदर इंडिया बनाई. जिसकी भूमिका में नरगिस सचाई, साहस और समर्पण की सबसे बड़ी शक्ति कहलाईं. अछूत कन्या, दुनिया ना माने या सुजाता, बंदिनी जैसी फिल्मों से आगे बढ़कर अपने मेलोड्रामा में मदर इंडिया की राधा ने पूरे भारतीय उप महाद्वीप को झकझोर दिया.

कालांतर में हम प्रतिघात, गॉडमदर, मिर्च मसाला, दामुल, दामिनी, थप्पड़ और धाकड़ जैसी कितनी विद्रोहिनी स्त्रियों की गाथा को देख चुके हैं. यहां तक कि हमने फायर, वाटर से लेकर गजगामिनी तक जैसे रूप भी देखे हैं तो इंग्लिश-विंग्लिश, लिपस्टिक अंडर माय बुरका और बरेली की बर्फी भी. लेकिन बसंती उन सबमें सबसे अलग दिखती हैं.

ये महिलाएं केवल इसलिए प्रगतिशील नहीं हैं कि इन्होंने बोल्ड महिला किरदारों को गढ़ा है बल्कि इसलिए अहम हो जाती हैं कि इनकी उपस्थिति पुरुषवादी सोच वाले समाज के आगे एक हस्तक्षेप की तरह है. ये संकोची नहीं हैं. ये समझती हैं वाचाल होना भर प्रगतिशीलता नहीं हैं एक खामोश प्रतिकार उसके स्पेस को प्रखरता प्रदान करता है. स्त्री का हर रूप सिनेमा की शक्ति है.

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