पाकिस्तान मुर्दाबाद था और रहेगा… जब फिल्मों ने दिखाया आतंकवाद का खौफनाक चेहरा – भारत संपर्क

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पाकिस्तान मुर्दाबाद था और रहेगा… जब फिल्मों ने दिखाया आतंकवाद का खौफनाक चेहरा – भारत संपर्क
पाकिस्तान मुर्दाबाद था और रहेगा... जब फिल्मों ने दिखाया आतंकवाद का खौफनाक चेहरा

फिल्मी पर्दे पर भी पाकिस्तान की खैर नहीं

साल 2001 की ऑलटाइम ब्लॉकबस्टर फिल्म थी- गदर एक प्रेम कथा. इस मूवी की लहर को न कभी हिंदुस्तान भूल सकता है और ना पाकिस्तान. तारा सिंह बने सनी देओल की दहाड़ ने सीमा पार की दुनिया को जिस भांति दहलाया था कि उसकी धमक आज तक बरकरार है. यही वजह थी कि जब इस फिल्म का दूसरा भाग आया तो पाकिस्तानी हुकूमत को उस कलाकार से परेशानी होने लगी जिसने पाकिस्तान की धरती पर मुट्ठी तानकर नारा बुलंद किया था- पाकिस्तान मुर्दाबाद. इसी के बरअक्स तारा सिंह ने चिंघाड़ लगाई थी- हिंदुस्तान जिंदाबाद था, जिंदाबाद है और जिंदाबाद रहेगा.

ये पाकिस्तान ही है जो हिंदुस्तान के अमन का दुश्मन है. सीमा पार पल रहे आतंकवाद का मकसद हमेशा से भारत को नुकसान पहुंचाना रहा है. भारत के अंदर भाईचारा को खत्म करने की साजिश रचना है. और हमारी फिल्मों ने हमेशा से पाकिस्तानी सेना और सरकार के इस खतरनाक मंसूबों और आतंकवाद के खौफनाक चेहरे को शिद्दत से बेनकाब किया है. कोई हैरत नहीं इन फिल्मों ने जबरदस्त कारोबार भी किया.

आतंक फैलने के साथ ही उस पर फिल्में भी बनीं

फिल्मों में आतंकवाद के खतरनाक चेहरे को दिखाने की शुरुआत नब्बे के दशक से ही हो गई थी. यही वो दशक था जब जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने सर उठाना शुरू किया था. निहत्थे लोगों को मारा जा रहा था, जैसे कि पिछले दिनों पहलगाम में देखा गया.चिनार दहकने लगे थे. घाटियां सुलगने लगी थीं. शिंकारा में अंगारे उग आए थे. कई स्थानीय युवकों ने गुमराह होकर कलम के बदले बंदूकें थाम लीं. पाकिस्तानी साजिश की गिरफ्त में आने लगे थे. इसी दौर में कश्मीर समस्या पर सबसे पहले मणिरत्नम ने बनाई- रोजा.

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इस फिल्म ने नब्बे के दशक के कश्मीर के सच को पर्दे पर चित्रित किया. आज पहलगाम में जिस तरह से बाहर से आए लोगों को निशाना बनाया गया, उसी तरह से रोजा में देश के दूसरे भाग से आए एक युगल को आतंकी साजिश का सामना करना पड़ता है. फिल्म में जमीनी यथार्थ को दिल दहला देने वाली शैली में पेश किया गया था. कुछ साल पहले विवेक अग्निहोत्री की द कश्मीर फाइल्स ने जो राष्ट्रीय बहस कायम की थी, तब रोजा ने देश भर में वही काम किया था.

दिल से.. में पहली बार मानव बम दिखाया

हालांकि हिंदी फिल्मों में आतंकवाद दिखाने का यह शुरुआती दौर था. अगले कुछ सालों तक कश्मीर से लेकर पंजाब या देश के अन्य बड़े शहरों में बढ़ती आतंकवादी वारदातों पर आधारित एक-एक करके कई फिल्में आईं. मसलन द्रोहकाल, माचिस, दिल से… वगैरह. इनमें दिल से… फिल्म की खास चर्चा हो जाती है. साल 1998 की इस फिल्म को भी मणिरत्नम ने निर्देशित किया था. इसमें शाहरुख खान, मनीषा कोइराला और प्रीति जिंटा ने अभिनय किया था. दिल से.. ऐसी हिंदी फिल्म थी, जिसमें पहली बार मानव बम को दिखाया गया. मनीषा कोइराला मानव बम बन कर दिल्ली में गणतंत्र दिवस के मौके पर आत्मघाती हमले करने की योजना बनाती है. लेकिन अगले ही साल यानी 1999 में आई सरफरोश ने आतंकवाद के सबसे खतरनाक चेहरे पर से नकाब उतार दिया.

सरफरोश आज भी सीमा पार घुसपैठ

सरफरोश में आमिर खान के एसीपी अजय सिंह राठौड़ के किरदार ने जांबाज देशभक्त पुलिस ऑफिसर का नजीर पेश किया. वहीं गायक बनकर भारत और पाकिस्तान में खूब लोकप्रियता बटोरने वाले गुल्फाम हुसैन के रूप में नसीरुद्दीन शाह आतंक का अलहदा चेहरा दिखे. सरफरोश आज भी सीमा पार से तस्करी और आतंकवादियों की घुसपैठ की कहानी कहने वाली एक अहम फिल्म के तौर पर आंकी जाती है. वास्तव में ये वो दौर था जब फिल्मी पर्दे पर आतंकवाद दर्शाने के तरीके तेजी से बदल रहे थे. प्रतीकों की जगह आक्रामकता ने शुरू कर दिया था. आगे चलकर आतंकवादी जैसे ही हाईटेक होने लगे साल 2000-01 तक आते-आते हिंदी फिल्मों में इन दहशतगर्दों का चेहरा और भी खौफनाक होता गया.

9/11 के बाद ग्लोबल टेररिज्म का चेहरा

मुंबई बम धमाके हो या फिर अमेरिका में हुए 9/11 हमले के बाद भारत ही नहीं बल्कि पश्चिम मुल्कों की तमाम फिल्मों में भी आतंकवाद एक अहम सब्जेक्ट होता गया. आजाद, बादल, फिजा, मिशन कश्मीर, इंडियन, ब्लैक फ्राइडे, ब्लैक एंड व्हाइट, फना, कीर्ति चक्र, मुंबई मेरी जान, अ वेडनेस डे, कुर्बान जैसी फिल्मों के साथ-साथ मिशन इस्तांबुल, न्यूयॉर्क, कंधार, एजेंट विनोद, माई नेम इज़ ख़ान, दी अटैक्स ऑफ 26/11, विश्वरूपम, फैंटम, नीरजा, एयरलिफ्ट, टाइगर जिंदा है, राजी, उरी:द सर्जिकल स्ट्राइक, वॉर, द कश्मीर फाइल्स, दी केरला स्टोरी, जवान और पठान आदि फिल्में आईं जिनमें भारत, पाकिस्तान, अमेरिका, इरान, इराक, सीरिया, अफगानिस्तान आदि सभी देशों में फैले ग्लोबल टेररिज्म के खतरनाक अंजाम को विस्तार से दिखाया.

पश्चिमी मुल्कों के सिनेमा में भी आतंकवाद

गौरतलब है कि न्यूयॉर्क में 9/11 को हुए अल कायदा के आतंकी हमले के बाद दुनिया भर में इस्लामी आतंकवाद को फिल्मों में चित्रित किया गया. 9/11 न्यूयॉर्क और 13 दिसंबर को भारतीय संसद पर हुए हमले के बाद आतंकवाद केवल एक देश की सीमा तक नहीं रहा. आतंकवाद अब ग्लोबल हो चुका था. अफगानिस्तान, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, इजराइल आदि मुल्कों में अल कायदा और हमास जैसे आतंकी संगठनों ने जिस प्रकार से खूनी खेल खेलना शुरू किया, उसका असर ग्लोबल सिनेमा पर भी पड़ा.

इस कड़ी में अफगानिस्तान में चार्ली विल्सन्स वॉर, लोन सर्वाइवर, बांग्लादेश में ढाका अटैक, जन्नत, फ्रांस में कार्लोस, टू पेरिस, ब्रिटेन में ब्लडी संडे, फाइव मिनट्स ऑफ हेवेन, 6 डेज या फिर अमेरिका में डीसी 9/11, फ्लाइट 93, दी पाथ टू 9/11, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर, न्यू यॉर्क, पेट्रिएट्स डे जैसी फिल्में आईं.

काबुल के बाद पाकिस्तान टेरर सेंटर

इन फिल्मों का प्रभाव भारतीय सिनेमा पर भी पड़ा था. भारत ने ही नहीं बल्कि अमेरिका जैसे मुल्क ने भी माना कि पाकिस्तान आतंकवाद का शरणस्थली देश है. अफगानिस्तान के बाद पाकिस्तान टेरर का नया सेंटर बन गया. यह बात तब और पुख्ता तौर पर साबित हो गई जब तत्कालीन यूएस प्रेसिडेंट बराक ओबामा ने अपने मिशन में ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान की धरती पर खोज निकाला और ड्रोन हमले में आतंकवाद के सबसे खतरनाक चेहरे का खात्मा किया.

यानी पाकिस्तान भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम बड़े मुल्कों की नजर में आतंकवाद का प्रायोजक मुल्क है. जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद पाकिस्तानी हुकूमत और वहां की सेना की देन है, इसे हमारी फिल्मों में प्रमुखता से दिखाकर जैसे आगाह भी किया गया है. भारतीय फिल्मों के लिए ऐसा पाकिस्तान मुर्दाबाद था और हमेशा रहेगा.

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