कभी ‘शौकीन’ ‘ शर्माजी नमकीन’ कभी ‘विजय 69’, जब फिल्मी पर्दे पर बूढ़े किरदारों ने… – भारत संपर्क

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कभी ‘शौकीन’ ‘ शर्माजी नमकीन’ कभी ‘विजय 69’, जब फिल्मी पर्दे पर बूढ़े किरदारों ने… – भारत संपर्क
कभी 'शौकीन' ' शर्माजी नमकीन' कभी 'विजय 69', जब फिल्मी पर्दे पर बूढ़े किरदारों ने दिखाई हौसले की 'ऊंचाई'

फिल्मी पर्दे पर बुजुर्ग किरदारों का दम

अनुपम खेर की जोश, जज्बात और जिंदगी का हौसला बढ़ाने वाली फिल्म ‘विजय 69’ की बातें करूं, उससे पहले गुजरे ज़माने की कुछ फिल्मों की चर्चा लाजिमी है. सन् 1982 में बासु चटर्जी निर्देशित फिल्म आई-‘शौकीन’; जिसमें अशोक कुमार, एके हंगल और उत्पल दत्त ने खुद को नये जमाने के फैशनेबल बूढ़े के तौर पर पेश किया था. वे अपने आपको किसी मॉडर्न युवा से कम नहीं समझते. क्लब में जाते, डांस करते, लेटेस्ट डिजाइन ड्रेस पहनते, फिट रहते और फटाफट खूबसूरत युवतियों से गप्पे-शप्पे करते और इस तरह से जिंदगी का भरपूर लुत्फ उठाते. दूसरी फिल्म थी- बीआर चोपड़ा-यश चोपड़ा की ‘वक्त’ (1965) जिसमें बलराज साहनी पर फिल्माए गए इस गाने को शायद ही कोई भूल पाए- ओ मेरी जोहरा जबी sss… तू अभी तक है हंसी… और मैं जवां sss. इत्तेफाक कि सन् 1951 में बीआर चोपड़ा ने जब ‘अफसाना’ फिल्म से अपना डायरेक्टोरियल डेब्यू किया तो उसमें एक गाना था- अभी तो मैं जवान हूं… जो आज भी लोगों की जुबान पर चस्पां है. अब सन् 2024 जब अनुपम खेर ‘विजय 69’ लेकर आए तो यहां भी ट्रायथलॉन करने के लिए कहने से गुरेज नहीं करते- अभी तो मैं जवान हूं…

वास्तव में साठ, सत्तर या अस्सी के दशक की ऐसी फिल्मों के इन किरदारों में हास्य का पुट था, लेकिन इनकी तासीर में हौसले की चिंगारी दबी थी, जिसकी आंच को बाद के फिल्मकारों ने पूरी जिंदादिली से नई ऊंचाई दी. सिनेमा केवल युवाओं की मस्ती की दुनिया नहीं; जिंदगी, परिवार और सोसायटी का प्रतिबिंब है. पुरानी फिल्मों या गानों में जब भी किसी वयस्क को जोश से लबरेज फिल्माया गया, या जरा भी रोमांटिक मूड का दिखाया गया तो उसका मकसद सिनेमा हॉल में दर्शकों को हंसाना-गुदगुदाना भर था, लेकिन अनुपम खेर की ही 1984 में आई फिल्म ‘सारांश’ के बाद फिल्मकारों का नजरिया बदल गया. महेश भट्ट लिखित और निर्देशित उस फिल्म में अनुपम खेर तब महज 28 साल के थे. उन्होंने 60 पार रिटायर्ड बुजुर्ग का किरदार बखूबी निभाया और रातों-रात प्रतिष्ठा हासिल की. उसी समय राजेश खन्ना-शबाना आजमी की फिल्म ‘अवतार’ (1983) ने पर्दे पर बुजुर्गियत को सम्मान देने की वही राह दिखाई, जिसे अमिताभ बच्चन-हेमा मालिनी की ‘बागवान’ (2003) ने नये मुकाम पर पहुंचाया. सिनेमा में अब बुजुर्गों के किरदार और उनकी दुनिया की कहानी को भी गंभीरता से जगह मिलने लगी.

69 में 19 के दमखम वाले किरदार

पिछले दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई ‘विजय 69’ में अनुपम खेर ट्रायथलॉन (Triathlon) करने के लिए ‘अभी तो मैं जवान हूं…‘ की दुहाई देते हैं और अपनी मर्जी की जिंदगी जीने की कोशिश करते हैं. वो खुद को 18 साल के नौजवान से कम फिट नहीं समझते. ट्रायथलॉन में जब हिस्सा लेते हैं तो उनका करीबी मुकाबला 18 साल के लड़के से होता है. ट्रायथलॉन को लेकर परिवार के सदस्यों से टकराव होते हैं. दोस्त गुस्सा होते हैं. अड़ोसी-पड़ोसी मजाक उड़ाते हैं, बढती उम्र का हवाला देते हैं- 69 की उम्र में ट्रायथलॉन मतलब मौत को निमंत्रण. लेकिन वो मानते नहीं. विजय मैथ्यू अपने अंदर की आग को बुझने नहीं देते. वो बार-बार साबित करते हैं, 69 साल का होने का ये मतलब नहीं कि घर बैठकर मौत का इंतजार किया जाए. विजय को मालूम है, ट्रायथलॉन में डेढ़ किलोमीटर स्विमिंग, चालीस किलोमीटर साइकिलिंग और दस किलोमीटर की रनिंग करनी होती है. इसके बावजूद वह देश में नया रिकॉर्ड बनाने को तत्पर हैं.

वास्तव में अभी तो मैं जवान हूं किसी भी बुजुर्ग के भीतर दबी उसकी ख्वाहिश को ही व्यक्त करती है. बूढ़ा होना उम्र का एक पड़ाव हो सकता है, निष्क्रियता की निशानी नहीं. लोग बूढ़े शरीर से होते हैं, दिलो दिमाग से नहीं. गाने की यह पंक्ति अनुपम खेर और ऋषि कपूर की फिल्म ‘श्रीमान आशिक’ (1993) में भी शामिल थी. हास्य यहां भी था लेकिन उस हास्य में भी वही हौसला था जो ऋषि कपूर की फिल्म ‘शर्माजी नमकीन’ और ‘राजमा चावल’ में था या अमिताभ बच्चन की ‘102 नॉट आउट’ या ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’ जैसी हास्य प्रधान फिल्मों में, जहां बुजुर्गियत को मानो सेलिब्रेट किया गया है. परंपरागत तौर पर वृद्धावस्था को वाणप्रस्थ और संन्यास के लिए बताया जाता है लेकिन ‘विजय 69’ जैसी फिल्में इस धारणा को तोड़कर नई ऊंचाई हासिल करती हैं. ये फिल्में बताती हैं बुढ़ापे में भी जिंदगी को जोश में जिया जा सकता है.

इस तरह ऊंचाई पर पहुंचा सिनेमा

हिंदी फिल्मों में विजय का किरदार एंग्री यंग मैन के लिए जाना जाता है. विजय मानी विजेता. ऐसा किरदार जो कभी परास्त नहीं होता. अमिताभ बच्चन ने कई बार इस किरदार को निभाया है और दर्शकों का दिल भी जीता है लेकिन इस बार विजय एंग्री ओल्ड मैन बनकर आया है. कोई हैरत नहीं कि अनुपम खेर ने इस किरदार में भी सबका दिल जीत लिया. फिल्म के मध्य में कहानी कुछ गैरजरूरी पहलुओं पर फोकस जरूर हो जाती है लेकिन फिर अपने मिशन पर वापस आ जाती है. ऐसा शायद ही हुआ जब किसी कलाकार ने अपनी रियल लाइफ की उम्र वाले किरदार को पर्दे पर भी जीकर दिखाया. इस लिहाज से अनुपम खेर अनोखे हो जाते हैं.

लेकिन सिनेमा के पर्दे पर एक जीवंत बुजुर्ग का किरदार निभाने में अमिताभ बच्चन बेमिसाल हैं. यह सिलसिला ‘चीनी कम’ से शुरू होता है और ‘ब्लैक’, ‘पिंक’, ‘पीकू’, ‘नि:शब्द’, ‘झुंड’ होता हुआ अपनी कलात्मक ‘ऊंचाई’ तक पहुंचता है. जिन लोगों ने अमिताभ बच्चन को ‘गुलाबो सिताबो’ के मिर्जा के किरदार के रूप में देखा है, वो समझ सकते हैं बिग बी आखिर 82 में भी नॉट आउट क्यों हैं? कई लोग मानते हैं युवा अमिताभ पर बुजुर्ग अमिताभ भारी है.

रिटायरमेंट का मतलब जिंदगी की शुरुआत

‘ब्लैक’, ‘पिंक’, ‘पीकू’, ‘झुंड’ या ‘ऊंचाई’ की कहानी फिल्मों में बूढ़े किरदारों की परंपरागत छवि से विद्रोह करती है. इन फिल्मों ने नायक का चेहरा बदल दिया. बॉक्स ऑफिस पर सफलता के समीकरण बदल दिये. नायक केवल वो नहीं जो प्रेमिका को पाने के लिए उसके बूढ़े मां-बाप की प्रतिष्ठा से खिलवाड़ करे, बल्कि नायक ‘झुंड’ का बुजुर्ग विजय बरसे भी है जो झुग्गी बस्ती में गरीब, उपेक्षित खिलाड़ियों की टीम चुनते हैं और उसे अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल प्लेयर बनाते हैं. नायक ‘ब्लैक’ का टीचर है, नायक ‘पिंक’ का जुझारू वकील है, नायक ‘पीकू’ का कब्ज से परेशान 70 साल का भास्कर बनर्जी है, जो डॉक्टरी हिदायत के विरुद्ध भरपेट जलेबी खाना चाहता है और तेज गति से साइकिलिंग भी. उसे जीने की चाह है, उसमें जीवन का आनंद उठाने की तमन्ना है.

नायक सूरज बड़जात्या की फिल्म ‘ऊंचाई’ के दोस्त हैं, जो बुढ़ापे में एवरेस्ट बेस कैंप पर चढ़ते हैं. बूढ़े ओम के किरदार में अनुपम खेर यहां भी हैं और हैं- अमिताभ बच्चन, बोमन ईरानी, डैनी डेन्जोंगपा और नीना गुप्ता. साल 2022 की यह फिल्म भी ऋषि कपूर की फिल्म ‘शर्मा जी नमकीन’ की फिलॉस्फी को पूरे जज्बात के साथ आगे बढ़ाती है- रिटायरमेंट का मतलब जिंदगी से हार मान लेना नहीं बल्कि नई जिंदगी की शुरुआत भी है. ‘ऊंचाई’ में भी बुजुर्गों को उनकी उम्र और सेहत का हवाला देते हुए बेस कैंप पर जाने से पहले मना किया जाता है जैसे कि ‘विजय 69’ में अनुपम खेर को ट्रायथलॉन में शामिल होने से पहले रोका जाता है. लेकिन जीवट हमेशा उम्र पर भारी पड़ा है, जिंदगी हो या सिनेमा.

जॉगर्स पार्क में रिटायर्ड बुजर्गों की जिंदगी

इस सिलसिले में साल 2003 की फिल्म ‘जॉगर्स पार्क’ को नहीं भूला जा सकता. सुभाष घई ने इस फिल्म को लिखा और प्रोड्यूस भी किया था. निर्देशक थे- अनंत बलानी. फिल्म की कहानी एक जज की जिंदगी की उधेड़बुन पर आधारित थी. जज की सोच यह है कि वो रिटायर्ड होकर क्या करेंगे और नई पीढ़ी पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा. फिल्म में विक्टर बनर्जी, गिरीश कर्नाड, दिव्या दत्ता और पेरिजाद जोराबियन जैसे कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया था. इस फिल्म ने उस वक्त काफी प्रशंसा और कमाई भी बटोरी थी. रिटायर्ड लाइफ कैसी हो, नई पीढ़ी को उससे क्या मैसेज मिले, इसे फिल्म में बहुत ही गंभीरता से दिखाया गया था. सिनेमा के पर्दे पर बुजुर्ग किरदारों की मनोदशा, उम्मीद, दर्द और महत्वाकांक्षा की परत को बारीकी से उकेरा गया था. जॉगर्स पार्क ने फिल्ममेकर्स को इस दिशा में एक नई राह भी दिखाई थी.

Old Generation Actors

महिला किरदारों में जीत की मिसाल

‘विजय 69’ के विजय मैथ्यू को जब उनकी बेटी ट्रायथलॉन करने से मना करती है तो वह कहते हैं- “69 का हूं तो क्या सपने देखना छोड़ दूं, 69 का हूं तो सुबह अखबार पढ़ूं, मॉर्निंग वॉक करूं, केवल दवाइयां खाकर सो जाऊं और एक दिन मर जाऊं?” लेकिन जब वो अपनी सक्रियता पर अडिग रहते हैं तो एक दिन वही बेटी उनसे कहती है- “जो हार नहीं मानते वो कभी नहीं हारते.” ऐसे पुरुष किरदारों के बरअक्स फिल्मी पर्दे पर अनेक वयस्क महिला किरदारों ने भी ऐसी ही जीत और जिजीविषा की मिसाल पेश की है. गोयाकि दमदार महिला किरदार सिनेमा में पूरक होते हैं.

कंगना रनौत की ‘पंगा’, प्रियंका चोपड़ा की ‘मेरी कॉम’ या भूमि पेडनेकर-तापसी पन्नू की ‘सांड की आंख’ जैसी बायोपिक फिल्मों की अगर हम यहां विशेष चर्चा ना भी करें तो ओटीटी रिलीज शर्मिला टैगोर की ‘गुलमोहर’ का उल्लेख जरूरी है. एक ऐसी बुजुर्ग महिला जिसे सही मायने में जिंदगी के रसबोध की तलाश है, वह संबंधों की ऊष्मा खून के रिश्ते में नहीं बल्कि दिलों की गर्मजोशी में खोजती हैं, लेकिन उसके घर के युवा सदस्य इससे उदासीन हैं. नई जिंदगी जीने के लिए ही वह बुढ़ापे में पॉन्डिचेरी में घर खरीदने के लिए प्रेरित होती है. पॉन्डिचेरी प्रतीक है प्रकृति के खुले वातायन का.

इसी क्रम में हम नीना गुप्ता जैसी अदाकारा के कुछ अहम किरदारों को भला कैसे भूल सकते हैं. जैकी श्रॉफ के साथ उनकी फिल्म ‘खुजली’ हो या आयुष्मान खुराना और सान्या मलहोत्रा के साथ चर्चित फिल्म ‘बधाई हो’. इन दोनों फिल्मों में नीना की जिंदगी कपोल कल्पना नहीं, हालात से उपजे वास्तविक किरदार प्रतीत होते हैं. सबसे खास बात ये कि फिल्मकारों ने इन किरदारों को किसी तिरस्कार या हास्य विनोद की भावना से चित्रित नहीं किया है बल्कि इसकी गरिमा को बनाये रखा है. यकीनन बूढ़ों का भी दिल ही तो है, उनका भी दिल तो बच्चा है जी. उनके हौसले, जोश, जज्बात, क्रिएटिविटी का मजाक उड़ाएंगे तो वो भी कहेंगे – बुड्ढ़ा होगा तेरा… फलां फलां…
आमीन.

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