UP के क्रांतिकारी ‘मलंग’ को देश ने भुलाया… बांग्लादेश में है हीरो, दो कब्… – भारत संपर्क
कानपुर के मकनपुर में मौजूद शहीद मजनू शाह मलंग की मजार. (फाइल फोटो)
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पहली लड़ाई का जब बिगुल फुंका तो मैदान में साधु-संत, पीर-फकीर भी कूद पड़े. फिर साल 1776 में शुरू हुआ फकीर आंदोलन. इस आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वालों में ‘मलंग’ भी शामिल थे, जिन्होंने धर्म की दीवार तोड़ सभी के साथ कांधे से कांधा मिलाकर जंगे आजादी के लिए शहीद हुए. मलंगों ने ही पहली बार अंग्रेजों को गंगा-जमुनी तहजीब का एहसास कराया था. इन्हीं मलंगों में एक थे शहीद मजनू शाह मलंग, जिनकों देश ने भुला दिया लेकिन पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में उन्हें आज भी सम्मान दिया जाता है.
मजनू शाह मलंग ने गुरिल्ला युद्ध से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे. वह अठारहवीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए दहशत का सबब बन चुके थे. अंग्रेज इनसे खौंफ खाते थे और इनकी रहस्मयी शक्तियों का दावा किया करते थे. अंग्रेजो से लड़ने के लिए मजनू शाह मलंग फकीरी आंदोलन में शामिल हो गए थे. अंग्रेजी हुकूमत के लिए यह आंदोलन सिरदर्द बन गया.
कौन थे मजनू शाह मलंग
हरियाणा क्षेत्र के मेवात में जन्में मजनू शाह मलंग एक ‘मलंग’ (भटकने वाले फकीर) थे. वह कानपुर जिले के गांव मकनपुर में स्थित मदारिया सिलसिले के प्रमुख सूफी संत हजरत बदीउद्दीन जिंदा शाह मदार से मुरीद थे. उन्होंने दीनाजपुर जिले के हेमताबाद में शाह सुल्तान हसन सूरिया बुरहाना से बंगाल में मदारिया फकीरों या मलंगों का नेतृत्व संभाला था. मजनू शाह मलंग ने अंग्रेजो के खिलाफ जंग का एलान किया तो उनके मुरीदों ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन छेड़ दिया और इसका नाम रखा ‘पागलपंथी’.
अंग्रेजों के लिए बने सिरदर्द
अंग्रेजो के लिए यह क्रांतिकारी सिरदर्द बन गए थे. इसका कारण था इन मलंगों के पास एक-दूसरे से संपर्क तेजी से होना और इनका कोई ठिकाना न होने के कारण इन्हें खोजने में मुश्किलें पैदा होना. मजनू शाह मलंग लोगों के बीच जाकर ईस्ट इंडिया कंपनी की दमनकारी नीतियों का विरोध किया करते थे. उन्होंने बंगाल से लेकर उत्तर प्रदेश तक ब्रिटिश सरकार के खिलाफ क्रांति की अलख जगाई. तीन दशकों तक वह अंग्रेजों के लिए विलेन बने रहे.
सज्जादा मौलाना सय्यद फैजुल अनवार जाफरी मदारी.
किया करते थे गुरिल्ला युद्ध
कानपुर जिले में मौजूद दरगाह जिंदा शाह मदार के सज्जादा मौलाना सय्यद फैजुल अनवार जाफरी मदारी बताते हैं कि मजनू शाह मलंग अंग्रेजो के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध किया करते थे. उनके प्रतिरोध को कुचलने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने लेफ्टिनेंट ब्रेनन को नियुक्त किया. ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों ने 8 दिसंबर 1786 को उन्हें गोली मार दी जिससे वे घायल हो गए. घायलवस्था में मजनू शाह मलंग अंग्रेजों को चकमा देकर यूपी के कानपुर स्थित मकनपुर पहुंचे, जहां उन्हें स्थानीय जमींदार मीर सैयद हसन के पूर्वजों ने आश्रय दिया. चोट गंभीर होने की वजह से 26 जनवरी 1787 को उनका इंतकाल(मृत्यु) हो गया.
दरगाह जिंदा शाह मदार.
दो कब्रों में हुए दफन
मजनू शाह मलंग को मकनपुर में ही सुपुर्दे खाक किया गया. उनको दफनाने के लिए दो कब्रें खोदी गईं. मौलाना सय्यद फैजुल अनवार जाफरी मदारी बताते हैं कि जिंदा शाह मदार के जो मुरीद ‘दीवानगाह’ फिरके से संबंध रखते हैं उनकी लंबी जटाएं होती हैं. इंतकाल के बाद इन मलंगों की जटाओं को काट दिया जाता है और उन्हें अलग दूसरी कब्र में दफनाया जाता है. वह कहते हैं कि मजनू शाह मलंग भी दीवानगाह से संबधं रखते थे इसलिए उनकी दो कब्रें मकनपुर में मौजूद हैं. पहली कब्र मेला क्षेत्र और दूसरी मीर सैयद हसन के बड़े आवासीय परिसर में है.
बांग्लादेश में बना मजनू शाह मलंग के नाम पर पुल. (फोटो क्रेडिट: सोशल मीडिया)
मजनू शाह मलंग बांग्लादेश में हीरो
मजनू शाह मलंग ने देश के राज्य हरियाणा में जन्म लिया और यूपी की सरजमीं में सुपुर्दे खाक हुए. बाबजूद इसके उन्हें यहां भुला दिया गया. लेकिन वह आज भी बांग्लादेश में क्रांतिकारी हीरो के रूप में जाने जाते हैं. अंग्रेजो के खिलाफ उनकी अथक लड़ाई बांग्लादेशी साहित्य और लोककथाओं में अच्छी तरह से संरक्षित है. प्रसिद्ध बांग्लादेशी अभिनेता-निर्देशक दाराशिका ने फकीर मजनू शाह नामक एक फिल्म बनाई. उन्हें सबसे बड़ी श्रद्धांजलि बांग्लादेश सरकार ने कुछ साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री ने खुद एक पुल का नाम मजनू शाह मलंग रख उसे राष्ट्र को समर्पित कर दी.
स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सैनानी खान आलम मियां की शहादत
मौलाना सय्यद फैजुल अनवार जाफरी मदारी बताते हैं कि अंग्रेजों से जंग का सिलसिला मजनू शह मलंग के शहीद होने के बाद मदारी सिलिसिले के मुरीदों में लगातार जारी रहा. वह कहते हैं कि खानकाह के सज्जादा और सैय्यदजादगान की कुर्बानी भी इस वतन की मिट्टी में शामिल है, जिसके दम पर परचमे यौम लहराया है. इनमें स्वतंत्रता सेनानी नानाराव पेशवा के खास मित्र मकनपुर निवासी स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सैनानी खान आलम मियां भी शामिल थे. उनके आंदोलन से परेशान होकर अंग्रेजी फौज ने मकनपुर सैय्यद खान आलम मियां और उनके साथियों पर हमला बोल दिया.
इमली के दरख्त पर मलंगों को लगा दी फांसी
अचानक हुए हमले में सैकड़ो लोग शहीद हो गये और 105 लोग गिरफ्तार किये गए. गिरफ्तार किये गये क्रांतिकारियों को वर्तमान के मेला तहसील स्थान पर पहले लगी एक हथनी इमली के दरख्त पर फांसी पर लटका दिया गया था. सैय्यद खान घायल हालत में अपने कई साथियों के साथ अंग्रेजी घेरा तोड़ कर निकलने में कामयाब हो गये. वह हरियाणा के गुड़गांव स्थित अलवर चले गये और वहीं पर उन्होंने आखिरी सांस ली. उनका मजार आज भी वहां मौजूद है.
1857 की जंग में हुए शामिल
मलंगों ने 10 मई 1857 को मेरठ जंग में शामिल होकर अंग्रेजों के खिलाफ जंगे आजादी में कूद पड़े. इनमें बरेली के अहमद खॉ पठान मदारी इस जंग में सदरो के सदर के ओहदे पर थे. खरका गांव में 11 मई 1857 को अहमद खां मदारी, बहादुर खां पठान मदारी की कमान में लड़ते हुए अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए. उन्होंने बरेली, पीलीभीत, बदायूं, शाहजहांपुर से अंग्रेज़ो को भगा दिया. इंकलाबी मदारी बटालियन ने फरवरी 1858 तक अंग्रेजों के पैर दोबारा इलाके में जमने नही दिये.