क्या हैं वर्कप्लेस पर महिलाओं का अनुभव – women at work ke kuchh real…

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क्या हैं वर्कप्लेस पर महिलाओं का अनुभव – women at work ke kuchh real…

कहने को सफलता की सीढ़ी दोनाें के पास है, मगर स्त्रियों के हिस्से जो सीढ़ी आती है, उसके पायदान में गैप थोड़े ज्यादा हैं। यूं ही नहीं 40 की उम्र तक पहुंचते महिलाएं या तो काम से ब्रेक ले लेती हैं , या फिर तनाव जनित बहुत सारी बीमारियों की शिकार हो जाती हैं।

1917 की रूस की क्रांति उन महिला श्रमिकों की हड़ताल के कदमों पर आगे बढ़ी, जिन्होंने रोटी और शांति के लिए हड़ताल की थी। हालांकि इससे पहले अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी ने 28 फरवरी 1909 को महिला दिवस के रूप में मनाया गया था। स्त्री अधिकारों, कार्यस्थल पर समानता (women at work), भागीदारी और सामाजिक उत्थान की लड़ाई को इस साल 116 बरस (Women’s Day History) बीत रहे हैं। बहुत कुछ है जिसे प्राप्त किया जा चुका है। मगर अभी बहुत कुछ है, जिसके लिए महिलाएं संघर्ष कर रही हैं। संघर्ष और बदलाव की अपनी एक मूक भाषा होती है। यह संवाद और विचारों की मार्फत आगे बढ़ते हैं। वह चीज जो खराब लगती है, वही अंतत: बदली जाती है। भले ही उसमें समय ज्यादा लगे।

प्रोफेशनल वर्ल्ड में यकीनन महिलाओं की भागीदारी पिछले दो दशकों में बहुत बढ़ी है। मगर अब भी वर्कप्लेस में कुछ ऐसे अनकहे सच हैं, जिनके बारे में ज्यादातर महिलाएं जानती हैं। मगर सहकर्मी पुरुष इन्हें न केवल नजरंदाज करते हैं, बल्कि कुछ तो इनसे सरासर इनकार ही कर देते हैं। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (International women’s day 2025) पर हमने अलग-अलग क्षेत्र की महिलाओं से जाने कार्यस्थल (Women at work) के उनके अनुभव।

पुरुष कर्मियों को महिला बॉस को रिपोर्ट करने में दिक्कत होती है

सुलोचना वर्मा, डायरेक्टर डिलीवरी एंड प्रोग्राम मैनेजमेंट

प्राइवेट सेक्टर में जो सबसे पहली चीज मेरे दिमाग में आती है वह है वेतन में गैरबराबरी (Gender pay gap)। बराबरी के पद और काम के बावजूद महिलाओं को अपने पुरुष समकक्षों से कम वेतन और भत्ते दिए जाते हैं। और यह बात सभी को पता होती है। बस कोई किसी से कहता नहीं है। सिर्फ इतना ही नहीं पुरुष कर्मी अभी भी फीमेल बॉस को रिपोर्ट करने में असहज महसूस करते हैं। उनके लिए मेल बॉस के साथ काम करना और उन्हें फॉलो करना ज्यादा आसान लगता है।

there are gender pay gaps
हां, अभी जेंडर पे गेप्स हैं। चित्र : सुलोचना वर्मा

महिलाएं दोहरे तनाव में हैं

डॉ रितु सेठी, सीनियर गाइनोकॉलोजिस्ट

एक डाॅक्टर होने के नाते में देख रही हूं कि इस समय कामकाजी महिलाएं दोहरे तनाव में हैं। घर की संरचना में अब भी महिलाओं पर ही ज्यादातर जिम्मेदारियां हैं। जबकि उन्हें बाहर जाकर वर्कप्लेस में पुरुषों के बराबर काम करना है। उनके सेम टारगेट और सेम वर्किंग आवर हैं। जिसकी वजह से उनमें लाइफस्टाइल संबंधी समस्याएं ज्यादा बढ़ रही हैं। थायराॅइड, हॉर्मोनल इम्बैलेंस, ओबेसिटी और इनफर्टिलिटी लाइफस्टाइल जनित बीमारियां हैं।

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Dr Ritu Sethi
दोहरे तनाव के कारण महिलाएं बीमार हो रही हैं। चित्र : डॉ रितु सेठी

मैं एक स्त्री रोग विशेषज्ञ हूं। हमें औरतों के साथ ही काम करना होता है और मेडिकल फील्ड में महिलाओं के लिए बहुत अच्छा माहौल है। इसलिए हमें किसी  तरह के भेदभाव का सामना तो नहीं करना पड़ता, मगर घर की जिम्मेदारियां हमारे लिए भी वैसी ही हैं, जैसी अन्य महिलाओं के लिए।

मेल ईगाे है जो कभी भी टकरा जाती है

असीमा भट्ट, अभिनेत्री

असीमा भट्ट सबसे ग्लैमरस कहे जाने वाले क्षेत्र से संबंध रखती हैं। वे दो दशक से ज्यादा समय से अभिनय की दुनिया में सक्रिय हैं। वे कहती हैं, ” यह बात जगजाहिर है कि हम अपने आप को कितना भी मॉर्डन और सभ्रांत कह लें, मगर हमें मेल ईगो का सामना करना ही पड़ता है। यह उनके संस्कार में है, उनकी परवरिश ही ऐसी हुई है, अपने आसपास उन्होंने ऐसा ही व्यवहार देखा और यही सीखा है। हमारी दुनिया बहुत खुली हुई है। मगर कब हंसी-हंसी में वे ऐसी कोई चुटकी ले जाते हैं, जो बिलो द बेल्ट या अश्लील होती है।”

“एक और समस्या है, वह है महिलाओं का क्रेडिट नकार देना। किसी को यदि कोई बहुत अच्छा अवसर या काम मिल जाए, तो उसकी मेहनत को सिरे से नकार दिया जाता है। और दावा किया जाता है, कि क्योंकि वह महिला है इसलिए इतना आगे बढ़ रही है। जबकि हो सकता है कि वे आपसे ज्यादा ब्राइट हो। एक-दो उदाहरण छोड़ दिए जाएं, तो अब भी कहानियां मेल सेंट्रिक होती हैं, उन्हीं को अच्छा पैसा भी दिया जाता है। यही कहीं लिखा नहीं है, मगर हम सब जानते हैं कि यही हो रहा है।” 

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अभी भी रोल पुरुषों को देखकर लिखे जाते हैं । चित्र : असीमा भट्ट

कोख में बच्चा है और ब्रेन में परफॉर्मेंस प्रेशर

स्वाति, पीआर कंसल्टेंट

स्वाति (बदला गया नाम) एक पीआर एजेंसी के लिए काम करती हैं। उनकी गर्भावस्था की यह पहली तिमाही है। वे कहती हैं, “प्रेगनेंसी में मेरी डॉक्टर ने मुझे अपने खानपान और आराम पर ध्यान देने की हिदायत दी है। यह मेरी पहली प्रेगनेंसी है। हम सब बहुत खुश है और मुझे मेरे वर्कप्लेस से यह सुविधा मिली है कि मैं घर से काम कर सकती हूं। मगर एक अनकहा प्रेशर है जो हमेशा मेरे दिमाग में चलता रहता है, वह है परफॉर्मेंस प्रेशर।

मेरे दिमाम में हमेशा क्लाइंट, डेडलाइन और आउटपुट चलता रहता है। मैं दिन भर दौड़ती रहती है और कई बार खाना भी छोड़ देती है। मुझे लगता है कि मुझे वॉच किया जा रहा है। मैटरनिटी लीव और उसके बाद फिर से काम पर लौटना, यह मुझे अभी से परेशान कर रहा है। वर्कहॉलिज़्म का नकारात्मक पहलू यह है कि जब हमारे शरीर को आराम की जरूरत होती है, हम तब भी काम कर रहे होते हैं।

कम योग्य पुरुष भी स्त्री को अपने से कम मानते हैं 

कल्पना मनोरमा, रिटायर्ड टीचर, ऑथर 

घर के बाद अपने लिए हमेशा सुरक्षित स्थान मैं अपने कार्यक्षेत्र को मानती आई हूं। लेकिन ये विश्वास खंडित ज्यादा हुआ मंडित कम। जबकि व्यक्ति वहीं खुश रह सकता है, जहां का परिवेश वीमेनफ्रेंडली हो, मित्रवत हो। बुरा ये नहीं कि स्त्री को घर में दोयम समझा जाता है, बल्कि बुरा तब ज्यादा लगता है जब समान शैक्षणिक योग्यता और कभी-कभी कम योग्य पुरुष भी स्त्री को दोयम समझता है।

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वे अब भी स्त्री को दोमय दर्जे का ही मानते है। चित्र : कल्पना मनोरमा

एक घटना याद आती है। एक विद्यालय में पुरुष इंटरव्यूअर ने इंटरव्यू के दौरान मेरे सामने ऐसे सवाल रखे, जिन्हें विद्यालय के एचओडी भी हल नहीं कर पाए थे। यानी प्रश्न कठिन कम ऊटपटांग ज्यादा थे। मुझे भांपने में देर नहीं लगी कि सामने वाला साक्षात्कार कम बेइज्जती ज्यादा कर रहा है। उत्तर देते हुए मैं उनसे जब प्रश्न करने लगी, तो इंटरव्यू की प्रक्रिया ही स्थगित कर दी गई। उनके हावभाव से मुझे लगा था कि मेरा चयन उस विद्यालय में तो नहीं ही होगा, लेकिन चूंकि उनके साथ प्रिंसिपल और थे। मेरा चयन हुआ मगर समान विषय के साथी शिक्षक महोदय को मेरी काबिलियत खटक गई। जो उनके व्यवहार में यदाकदा हमेशा दिखती रही।

हालांकि राजनीति और कूटनीति वहां तक पाई जाती है, जहां तक मानव की प्रजाति मौजूद होती है लेकिन मुझे लगता है कि भारतीय संसद के बाद अगर घनघोर राजनीति कहीं होती है, तो दिल्ली के माध्यमिक विद्यालयों में होती है। लेकिन कुछ भी हो स्त्री अगर अपनी वैचारिकता की धार तेज़ करती रहे, तो देर सबेर कोई करे न करे स्त्री का अपना स्वबोध समृद्ध होने लगता है। जब स्वबोध समृद्ध होता है तो व्यक्ति इस दुनिया का रहता ही नहीं।

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