त्याग, समर्पण और संघर्ष…छत्तीसगढ़ के जागेश्वर यादव को पद्मश्री, इस जनजाति…

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त्याग, समर्पण और संघर्ष…छत्तीसगढ़ के जागेश्वर यादव को पद्मश्री, इस जनजाति…
त्याग, समर्पण और संघर्ष...छत्तीसगढ़ के जागेश्वर यादव को पद्मश्री, इस जनजाति का किया उत्थान

जागेश्वर यादव. (फाइल फोटो)

2024 के पद्म पुरस्कार की घोषणा हो गई है. इसमें 132 प्रतिष्ठित शख्सियतों को पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा. छत्तीसगढ़ की बात करें तो इस साल यहां से तीन लोगों को पद्मश्री पुरस्कार मिला है. इसमें जागेश्वर यादव, रामलाल बरेठ और हेमचंद मांझी का नाम शामिल है. जागेश्वर यादव की बात करें तो उनका पूरा जीवन समाज के लिए समर्पित है. जागेश्वर यादव जशपुर के आदिवासी कल्याण कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने हाशिए पर पड़े बिरहोर और पहाड़ी कोरवा लोगों के लिए काम किया.

जागेश्वर यादव ने जशपुर में आश्रम की स्थापना की और निरक्षरता को खत्म करने के साथ-साथ आदिवासियों तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाईं. कोरोना के दौरान जागेश्वर ने आदिवासियों को वैक्सीन लगवाईंं. इन कामों में आर्थिक तंगी तो आड़े आई लेकिन इसके बावजूद जागेश्वर यादव ने कभी भी सेवा में कमी नहीं आने दी. अपने अथक प्रयासों से वो बिरहोर के भाई बन गए.

जागेश्वर यादव की कहानी

जागेश्वर यादव का जन्म जशपुर जिले के भितघरा में हुआ था. बचपन से ही इन्होंने बिरहोर आदिवासियों की दुर्दशा देखी थी. जानकारी के मुताबिक घने जंगलों में रहने वाले बिरहोर आदिवासी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से वंचित थे. जागेश्वर ने इनके जीवन को बदलने का फैसला किया. इसके लिए सबसे पहले उन्होंने आदिवासियों के बीच रहना शुरू किया. उनकी भाषा और संस्कृति को सीखा. इसके बाद उन्हें शिक्षा की अलख जगाई, और स्कूलों में भेजने के लिए प्रोत्साहित किया.

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1989 से काम कर रहे जागेश्वर यादव

जागेश्वर यादव ‘बिरहोर के भाई’ के नाम से चर्चित हैं. हाल ही में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने उन्हें बुलाया था तो वह उनसे मिलने नंगे पाव ही चले गए थे. जागेश्वर को 2015 में शहीद वीर नारायण सिंह सम्मान मिल चुका है. जागेश्वर यादव 1989 से ही बिरहोर जनजाति के लिए काम कर रहे हैं. उन्होंने इसके लिए जशपुर में एक आश्रम की स्थापना की है. साथ ही शिविर लगाकर निरक्षरता को खत्म करने और स्वास्थ्य व्यवस्था लोगों तक पहुंचाने के लिए कड़ी मेहनत की है. उनके प्रयासों का नतीजा था कि कोरोना के दौरान टीकाकरण की सुविधा मुहैया कराई जा सकी. इसके अलावा शिशु मृत्यु दर को कम करने में भी मदद मिली.

सामाजिक परिवर्तन लाने में सहायक

आर्थिक कठिनाइयों की वजह से यह सब आसान नहीं था. लेकिन उनका जुनून सामाजिक परिवर्तन लाने में सहायक रहा. जागेश्वर बताते हैं कि पहले बिरहोर जनजाति के बच्चे लोगों से मिलते जुलते नहीं थे. बाहरी लोगों को देखते ही भाग जाते थे. इतना ही नहीं जूतों के निशान देखकर भी छिप जाते थे. ऐसे में पढ़ाई के लिए स्कूल जाना तो बड़ी दूर की बात थी. लेकिन अब समय बदल गया है. जागेश्वर यादव के प्रयासों से अब इस जनजाति के बच्चे भी स्कूल जाते हैं.

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