9 मई के एक साल: किस तरह पाकिस्तान की सेना, समाज और सियासत पूरी तरह बदल गई? | Pakistan… – भारत संपर्क

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9 मई के एक साल: किस तरह पाकिस्तान की सेना, समाज और सियासत पूरी तरह बदल गई? | Pakistan… – भारत संपर्क

6 दिसंबर, 1992 के पहले और बाद का भारत; 9/11 के पहले और बाद का अमेरिका, यूं ही 9 मई, 2023 के पहले और बाद का पाकिस्तान वह नहीं जो कभी था. पाकिस्तान में 9 मई की तारीख को ऐसे भी देखा जाना चाहिए कि जब पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ चार साल लंदन रह कर चुनाव से ठीक पहले वतन वापसी कर रहे थे तो दुबई एयरपोर्ट पर उड़ान भरने से पहले उन्हें कहना पड़ा “हम 9 मई वाले नहीं, 28 मई वाले हैं.”

28 मई से मियां साहब का इशारा 1998 की तरफ था. ये वो तारीख थी जब शरीफ के नेतृत्व में पाकिस्तान परमाणु संपन्न राष्ट्र बन गया.

सवाल है कि नवाज आखिर 6 महीने पहले क्यों 28 मई की याद दिला रहे थे और ‘9 मई’ से पल्ला झाड़ रहे थे? क्या इसलिए की इस दिन पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के रहनुमा और पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान को गिरफ्तार किया गया था? मगर पाकिस्तान के लिए तो ये कहीं से नया नहीं. नवाज खुद जेल जा चुके हैं. यहां तक की पाकिस्तान अपने एक पीएम (जुल्फीकार अली भुट्टो) की फांसी का भी गवाह रहा है. फिर 9 मई से दूरी बनाने की वजह क्या थी?

पाकिस्तान, एक नजरः 9 मई से 9 मई तक

दरअसल, इस दिन केवल भ्रष्टाचार के एक मामले में इमारान की गिरफ्तारी नहीं हुई थी. खान के हजारों समर्थक सड़कों पर उतर आए और गिरफ्तारी को नाजायज ठहराते हुए देश भर में हिंसक प्रदर्शन करने लगे. पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठानों पर कोई हमला करे और वह भी ऐसे नेता के समर्थक जो सेना ही के कंधे पर सवार हो कभी सत्ता में आया था, ये एस्टेब्लिशमेंट को कहां रास आता, इमरान और उनकी पार्टी को इसकी कीमत चुकानी पड़ी.

आरोप लगे कि खान ने भीड़ को उकसाया, जिसके बाद ही वह सेना पर हमलावर हुई. सेना ने प्रदर्शनकारी आम लोगों पर मिलिट्री अदालतों में मुकदमा चलाने का आदेश दे दिया. इसके बाद तो इमरान और उनकी पार्टी का, सेना और उनसे शह पाने वाले दूसरे इदारों ने वो सबकुछ किया, जो एक लोकतांत्रिक देश में नहीं होना चाहिए था. तोशाखाना, साइफर और दूसरे मामलों की जांच अचानक तेज हो गई.

इस्लामाबाद हाईकोर्ट ने इमरान को तीन साल की सजा सुना दी. इधर चुनाव आयोग ने पाकिस्तान में बेहद मकबूल इमरान के पांच साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दिया. उधर इमरान ही के पार्टी से राष्ट्रपति पद तक पहुंचने वाले आरिफ अल्वी ने खान के प्रति वफादारी दिखाई और संसद के निचले सदन को भंग कर दिया. इसका मतलब साफ था कि अब चुनाव निश्चित है.

पाकिस्तान में संसद भंग होने के बाद और चुनाव कराए जाने तक सत्ता केयरटेकर गवर्मेंट, जिसे पाकिस्तानी आवाम निगरां हुकूमत कहती है, उसके हाथों आ जाती है. इस दफा भी ऐसा ही हुआ. अनवार-उल-हक काकड़ प्रधानमंत्री बन गए. इमरान की पार्टी को उम्मीद थी कि भले उनका सुप्रीम नेता सलाखों के पीछे हो लेकिन उसकी मकबूलियत और पार्टी की सेकेंड लाइन ऑफ लीडरशिप के भरोसे वह चुनाव में बड़ी जीत हासिल करेंगे और अंततः इमरान देश के पीएम बन जाएंगे.

लेकिन जैसा पाकिस्तान ही के एक शायर पीरजादा कासिम ने एक गजल में फरमााया कि ‘दिल जानता है जो होना है, जो होना है होता भी नहीं’, पीटीआई के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ. एक-एक कर इमरान के सिपहसलारों को (जो भी जेल से बाहर इमरान और उनकी पार्टी पीटीआई के लिए जमीन तैयार कर रहे थे) जांच एजेंसियों ने गिरफ्तार करना शुरू कर दिया.

साइफर केस (गोपनीय दस्तावेज लीक करने के मामले) में इमरान के कभी सहयोगी रहे, देश के पूर्व विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी को गिरफ्तार कर लिया गया. ज्यों-ज्यों इधर इमरान और उनकी पार्टी पर नकेल कसता जाता, पाकिस्तानी सेना और दूसरे अहम इदारे मुस्लिम लीग (नवाज) के लिए राह आसान करते जाते.

पनामा पेपर्स से सामने आए भ्रष्टाचार मामले के बाद जिस नवाज शरीफ को देश छोड़ना पड़ा, भगोड़ा घोषित हुए, उन नवाज शरीफ का पाकिस्तान में गाजे-बाजे के साथ स्वागत हुआ. उनको भ्रष्टाचार के सभी मामलों में धड़ल्ले से जमानत मिल गई. राजनीति और सिस्टम की चालबाजियों को एक छटाक भर भी न जानने-समझने वाला हर शख्स जान रहा था की देश में क्या हो रहा है.

चुनाव में देरी की जाने लगी. केयरटेकर गवर्मेंट, सेना को लग रहा था की इमरान से जनता की थोड़ी सहानुभूति कम हो तो चुनाव कराई जाए. बहरहाल, थक-हार कर 8 फरवरी वोटिंग की तारीख मुकर्रर हो गई. पर इमरान की पार्टी इसमें हिस्सा नहीं ले सकती थी. चुनाव आयोग ने न सिर्फ पीटीआई पर पहरे लगाए बल्कि उनके चुनाव चिह्न ‘बल्ले’ को भी जब्त कर लिया.

चुनाव का हफ्ता नजदीक आता गया और अदालतों से इमरान के खिलाफ सजा की रफ्तार बढ़ती गई. खान और उनकी बीवी को उन दोनों की शादी के एक मुकदमे में सात साल की सजा सुना दी गई. ये अपने आप में हास्यास्पद था लेकिन यही हो रहा था. वोटिंग की तारीख आई. जैसा पाकिस्तान में होता आया है, बड़े पैमाने पर धांधली हुई. चुनाव आयोग, सेना इन आरोपों को नकारती रही.

लोग कहते हैं कि सेना ने साम-दाम-दंड-भेद, सब कुछ का इस्तेमाल कर लिया, फिर भी इमरान की पार्टी से ताल्लुक रखने वाले आजाद उम्मीदवार चुनाव परिणामों में बड़े पैमाने पर जीते और सबसे बड़े धड़े के तौर पर उभरे लेकिन ‘जो होना है वह कहां होता है’. जिसे सरकार में होना था, वह बदस्तूर जेल ही में रहा. जिसे विपक्ष में होना था, वह सरकार चला रहा है. सेना कहीं नहीं दिखती लेकिन हर जगह है.

दरअसल, आम चुनाव के नतीजों के बाद कभी एक दूसरे के जानी दुश्मन रहे नवाज शरीफ की पीएमएल-एन और आसिफ अली जरदारी की पीपीपी साथ आ गई. बाज लोग ऐसे भी हैं जिनका मानना है कि ‘ख़लाई मखलूक’ (पाकिस्तान में सेना की आलोचना इसी नाम से होती है) ने इन दोनो दलों को साथ बिठाया, हुकूमतसाजी के मामले तय किए और सेना के लिए मुफीद शहबाज शरीफ प्रधानमंत्री बना दिए गए.

अब एक-एक कर इमरान, उनकी पत्नी के खिलाफ अदालती मामलों में कुछ नरमी जरूर आ रही है लेकिन इमरान साल भर बाद भी इस 9 मई को अदियाला जेल ही से खत लिख अपनी बात लोगों तक पहुंचाने को मजबूर हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि सत्ता से बेदखल किए जाने के बाद क्या तब इमरान ने ‘आ बैल मुझे मार’ वाली गलती की? सेना के खिलाफ लोगों में आक्रोश भरना क्या उनकी एक रणनीतिक चूक थी? कुल मिलाकर सेना, समाज और सियासत पर 9 मई का क्या असर पड़ा?

पिछले साल 9 मई के प्रदर्शन की एक तस्वीर. फोटो एएफपी

पिछले साल 9 मई के प्रदर्शन की एक तस्वीर. फोटो एएफपी

किस तरह पाकिस्तान बदल गया?

पहला – ‘आ बैल मुझे मार’ वाली गलती?

जामिया मिलिया इस्लामिया के एकेडमी ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में प्रोफेसर अजय दर्शन बेहरा इसे एक रणनीतिक चूक के बजाय राजनीतिक चूक कहना ज्यादा बेहतर समझते हैं. प्रोफेसर बेहरा का मानना है कि इमरान खान ने जो कुछ भी किया, यह दरअसल उनके व्यक्तित्त्व (पर्सनैलिटी) और राजनीति को लेकर खान के दृष्टिकोण की समस्या है.

प्रोफेसर साहब का कहना है कि “मोटे तौर पर यही उनकी राजनीति का स्वरुप है जहां वे दूसरे सभी राजनीतिक दलों को चोर बताते हैं और किसी के साथ भी समझौता न करने की कसमें खाते हैं. बेहतर होता अगर वह मिलिट्री के खिलाफ आवाज बुलंद करते हुए दूसरे राजनीतिक दलों को भरोसे में लेते. क्योंकि राजनीतिक दल और सेना, दोनों के खिलाफ एक साथ जाने से वह अकेले पड़ गए.”

9 मई के वाकये ने सिर्फ इमरान खान और उनके राजनीतिक दल पर असर नहीं डाला है. इमरान की पार्टी तितर-बितर तो हुई ही है लेकिन इन संगीन आरोपों के बावजूद भी आवाम में उसके नेता को लेकर मकबूलियत अब भी गहरी है. सबसे अहम बदलाव ये आया है कि पाकिस्तानी समाज सेना के खिलाफ खुले तौर पर मुखर हो गया है.

प्रोफेसर बेहरा कहते हैं कि “मिलिट्री के खिलाफ लोगों का रूख बदला है. सेना के प्रति सम्मान घटा है. 2015-16 के बाद ही से लोग सार्वजनिक तौर पर, मीडिया में सेना के खिलाफ बोलने लगे थे लेकिन पहले अब ये बंटे हुए थे, अब ये एक पार्टी के बैनर तले संगठित हैं”. इसकी एक मिसाल 8 फरवरी को भी दिखी.

दूसरा – 8 फरवरी, 9 मई पर भारी रहा?

इमरान और उनकी पार्टी के खिलाफ तमाम हथकंडे इस्तेमाल करने के बाद भी बड़ी संख्या में लोग इमरान के लिए वोट करने घरों से बाहर निकले. ये जानते हुए भी की उनके ‘खान साहब’ सरकार नहीं बना पाए, “पीटीआई के आजाद उम्मीदवारों के पक्ष में वोटिंग मिलिट्री के खिलाफ एक सीधा संदेश था कि इमरान के साथ जो कुछ भी हुआ, वह गलत था.”

ये और बात की यही ‘गलत’ इमरान कभी सेना की सरपरस्ती में नवाज शरीफ और उनकी पार्टी के खिलाफ कर चुके हैं. स्केल का अंतर हो सकता है, कहीं ज्यादा, कहीं कम.

ये तो हो गई इमरान, उनकी पार्टी और आवाम पर 9 मई के असर की बात. अब आते हैं सेना पर. जिस एक वजह से ये सब कुछ हुआ की सेना का दखल पाकिस्तानी राजनीति में, सत्ता में घटे, क्या वह कम हुआ?

तीसरा – सेना फिर एक बार सिकंदर रही?

सेना पर 9 मई का हमला सुनियोजित था या नहीं, पीटीआई के लोग इस ‘साजिश’ में किस हद तक शामिल थे, ये अब तक सही मायने में साबित नहीं हो सका है मगर मिलिट्री का पाकिस्तान की राजनीति में अब राजनीतिक दलों पर कार्रवाई करने को लेकर रुख सख्त हो गया है.

प्रोफेसर बेहरा कहते हैं कि “इमरान ने पाकिस्तानी सेना को एक बहाना या यूं कहें की ग्राउंड तो दे ही दिया है जहां वह 9 मई का हवाला देते हुए किसी एक राजनीतिक दल के खिलाफ कभी भी खुल कर क्रैकडाउन कर सके.”

पाकिस्तान की सियासत में सेना की भूमिका पहले भी ज्यादा थी लेकिन प्रोफेसर बेहरा कहते हैं कि अब एक बुनियादी अंतर ये आया है कि वह अब संस्था (इंस्टीच्यूशनलाइज) का रूप ले चुकी है. सिविल और मिलिट्री के समीकरण में प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों तौर पर अब मिलिट्री की दखल कुछ अधिक हो गई है.

अब यहां से आगे क्या?

तो क्या इमरान खान और उनकी पीटीआई के आने वाले कुछ महीनों, बरसों में वापसी के कोई आसार नहीं नजर आते? इमरान और सेना में सुलह की थोड़ी भी संभावना है या नहीं?इस सवाल के जवाब में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय संबंध पढ़ाने वाले और समकालीन विषयों के जानकार प्रोफेसर अमिताभ सिंह कहते हैं कि “पाकिस्तान के बारे में कभी कहा जाता था कि उसको अल्लाह, आर्मी और अमेरिका चलाता है. भले अमेरिका की जगह चीन ने ले ली हो लेकिन आर्मी अब भी वहीं है.

सिंह के मुताबिक “पाकिस्तान में सभी इसी धुरी के आस पास घूमते हैं. आज तहरीक ए इंसाफ पार्टी को देख के भले ये लग रहा हो की वह सुसप्ता अवस्था में है, वापसी नहीं कर सकती लेकिन आने वाले समय में जब भी शहबाज शरीफ, उनके गठबंधन पीएमएलएन-पीपीपी से सेना की बिगड़ती है तो बहुत मुमकिन है कि बदले हुए हालात में पीटीआई को फिर एक बार सत्ता में लाने की कोशिश सेना करे.”

मुझे जावेद अख्तर की नज्म याद आ रही है… मैं सोचता हूँ /जो खेल है /इस में इस तरह का उसूल क्यूँ है /कि कोई मोहरा रहे कि जाए /मगर जो है बादशाह /उस पर कभी कोई आँच भी न आए.

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